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________________ आम्नव की आग के उत्पादक और उत्तेजक ५७३ नवों का निरोध होने पर कर्मों के उदय से आत्मा को होने वाली सांसारिक पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति बंद हो जाती है और उस स्थिति में विशुद्ध आत्मिक सुख (आनन्द) की अनुभूति होती है। किन्तु जब तक जीव में आनव की क्रिया, तदनुसार. योगों की चंचलता और प्रवृत्ति रहती है, तब तक वह शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक भौतिक दुःखों और क्षणिक पौद्गलिक या वैषयिक सुखों की अनुभूति के चक्र में जीवनयापन करता रहता है। वह सहज स्वाभाविक आत्मिक सुख के अनुभव से वंचित रहता है।" नव की आग आत्मा के ज्ञानादि गुणों को विकृत कर डालती है निष्कर्ष यह है कि आनव एक ऐसी आग है, जो आत्मा के अनन्त ज्ञान और दर्शन के असीम प्रवाह को अपनी लपटों से मुर्झा और झुलसा डालती है, ज्ञान और दर्शन की अनन्त धाराओं को अवरुद्ध करके निराधार बना देती है। अनन्तशक्ति के स्रोतों को विमुग्ध और स्थगित कर देती है, असीम आनन्द की अनुभूति को आम्रव की आग विकृत बना डालती है। आम्नव की आग के उत्पादक एवं उत्तेजक कौन? यह जानना आवश्यक अतः जिज्ञासु साधक और मुमुक्षु आत्म-विकासार्थी के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि नव की इस आग को और इसके उत्पादकों, सह-उत्पादकों और आग के उत्तेजकों को भलीभाँति समझ ले, और भलीभांति हृदयंगम कर ले। जैनागमों में किसी य पदार्थ का त्याग (प्रत्याख्यान) करने के लिए पहले उसे ज्ञपरिज्ञा से जानना आवश्यक बताया गया है। २ कर्मों के विभिन्न रहस्यों को जानने वाला ही परिज्ञातकर्मा होता है आचारांगसूत्र में स्पष्टतः कहा गया है कि इस लोक में जिस साधक को ये कर्म समारम्भ परिज्ञात (अर्थात् ज्ञपरिज्ञा से ज्ञात और प्रत्याख्यान परिज्ञा से प्रत्याख्यात) हो जाते हैं, वह मुनि निश्चय ही परिज्ञातकर्मा हो जाता है। कर्मानवों का भलीभांति परिज्ञान क्यों आवश्यक है? अतः आत्मा के गुणों, शक्तियों और विशेषताओं को क्षति पहुँचाने वाली आम्रव (कर्मों के आगमन की आग और उसके उत्पादकों, उत्तेजकों, प्रोत्साहकों को समझना १. जैनयोग पृ. ३४ (भावांश) २. ज्ञपरिज्ञया जानाति, प्रत्याख्यानपरिज्ञया हेयतत्त्वं प्रत्याख्याति त्यजतीति परिज्ञा । ३. "जस्सेते लोगंसि कम्म समारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ।” Jain Education International - स्थानांगवृत्ति स्थान २ - आचारांग सूत्र श्रु.१ अ. १ उ.१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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