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________________ ५८२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर ( ६ ) प्रमाद के पंचम अंग : विकथा की विवेचनकथा प्रमाद का अन्तिम अंग है - विकथा । विकथा का अर्थ है-ऐसी कथा, ऐसी चर्चा या ऐसी बातें, अथवा ऐसा औपन्यासिक या विकारोत्तेजक साहित्य का पठन-वाचन, ऐसा दृश्य देखना जिससे मन में, वचन में विकार बढ़े, शरीर और इन्द्रियाँ कुचेष्टा करने के लिए उद्यत हो जाएँ। शास्त्रों में चार मुख्य विकथाएँ बताई गई हैं- (१) स्त्रीविकथा, (२) भक्तविकथा, (३) राजविकथा और (४) देशविकथा ।' स्त्रीविकथा वह है, जो कथा या उपन्यास या चर्चा काम विकारोत्तेजक हो, उसे कहना, पढ़ना या सुनना अथवा दृश्य देखना। आशय यह है कि स्त्रियों के हावभाव, अंगोपांगों अथवा उनकी कामचेष्टाओं, क्रीड़ाओं का इस ढंग से वर्णन करना, सुनना या पढ़ना या उनसे सम्बन्धित अश्लील दृश्य देखना, जिससे कामोत्तेजना पैदा हो। वह स्त्रीविकथा है। भक्तविकथा उसे कहते हैं, जिसमें विविध प्रकार को भोज्य पदार्थों की रसप्रद बातें इस ढंग से कही सुनी जाएँ जिससे स्वाद - लोलुपता बढ़े, समय का निरर्थक अपव्यय हो। इसी प्रकार राजकथा से आशय है कि राजाओं के द्वारा या राष्ट्रों द्वारा किये गए या किये जाने वाले हिंसात्मक युद्धों, युद्धलिप्सा के कारण राज्यवृद्धि के लिए किए गए नरसंहार तथा राजाओं द्वारा किये गए या किये जाने वाले पशु-पक्षियों के शिकार का, निर्दोष पशु-पक्षियों की राजाओं द्वारा देवी - देवों के नाम पर की जाने वाली पशुबलि, नरबलि आदि तथा राजाओं के अन्तःपुर का भोग विलास का, रंग-राग आदि का इस ढंग से वर्णन किया जाए जिससे मन में हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान पैदा हो, या हिंसा करने की वृत्ति पैदा हो। वर्तमान में राजनेताओं या मंत्रियों की विकृति एवं सत्ता की छीनाझपटी वाली बाजनीति-सी राजनीति की चर्चा में व्यर्थ समय खोना, जिससे मन में राग-द्वेष या कषाय की वृद्धि हो, सत्ता लालसा बढ़े। सत्ता या कुर्सी पाने के लिए तिकड़मबाजी की भावना पैदा हो। इसी प्रकार देश कथा का आशय उस चर्चा विकथा से है, जिसमें विविध देशों के फैशन, विलास एवं हिंसात्मक रीति-रिवाजों, कामोत्तेजक परम्पराओं, रागद्वेषवर्द्धक का कथन-श्रवण या पठन किया जाए। ये चारों विकथाएँ प्रमाद की आग को उत्तेजित एवं वृद्धिंगत करने वाली हैं। इन विकथाओं में पड़ने या इनके सुनने-पढ़ने से एक तो आत्म-साधना का अमूल्य समय नष्ट 9. चत्तारि विकहाओ पन्नत्ताओ, तं जहा - इत्यिकहा, भत्तकहा, रायकहा, Jain Education International , देसकहा । " - समवायांग, समवाय ४ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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