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१०१४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) भौतिक ज्ञान-विज्ञान में प्रगति की है, दूसरी ओर ऐसे भी महामानव हुए हैं, जिन्होंने अपनी उक्त शक्तियाँ आसवकारी सावधकों में न लगाकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तपलप आध्यात्मिक मार्ग में लगाई हैं और समस्त कर्मों का, कषायों एवं रागद्वेष-मोह का निरोध एवं क्षय करके सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए हैं। उन्होंने अपने कल्याण के साथ-साथ अनेको जिज्ञासु.एवं मुमुक्षु जनों का कल्याण किया है। उन लोगों ने अपनी शक्तियों का निरर्थक एवं अहितकर कार्यों में अपव्यय न करके उनको संजोया और अध्यात्म संघर के मार्ग में अनन्त आत्मशक्ति उपलब्ध की।
वैसे तो ये शक्तियाँ सभी में हैं। परन्तु अधिकांश मानव जाने-अनजाने उन शक्तियों का दुरुपयोग या अपव्यय करते रहते हैं। आचारांग सूत्र में बताया है कि आत्मा में निहित अनन्तशक्ति से अनभिज्ञ अज्ञानी मनुष्य किस प्रकार और किस-किस कारण से जीवों की हिंसा करके अपनी शक्ति का दुरुपयोग और अपव्यय करते हैं, और घोर कर्मो का आस्रव और बन्ध करके अपने लिए स्वयं दुर्गति और दुर्योनि का पथ प्रशस्त करते हैं तथा जन्म-मरणादि दुःख भोगते हैं। ___आचारांग के अनुसार-वे अपनी शक्ति का दुरुपयोग पहले बताये हुए मुख्य ८ कारणों से करते हैं। सम्भूति मुनि के जीव (ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती) ने तपस्या से अर्जित संचित की हुई आत्मशक्ति को निदान (कामभोगों का संकल्प) करके व्यर्थ ही खो दी। वह खोई हुई शक्ति उसे पुन: प्राप्त न हो सकी। इसके विपरीत चित्तमुनि ने तप-संयम से प्राप्त शक्ति से समस्त कमों को क्षय कर डाला और सिद्ध बुद्ध-मुक्त परमात्मा बन गए। ___कई व्यक्ति निरर्थक ही अपनी शारीरिक, मानसिक शक्तियों को नष्ट करते रहते हैं। वे जूआ, चोरी, मांसाहार, मद्यपान, वेश्यागमन, परस्त्रीगमन, हत्या, दंगा, आतंक, तोड़फोड़, आगजनी, शिकार, आदि दुष्कृत्यों में अपनी शक्ति का दुरुपयोग करते हैं। वे चाहते तो अपनी शक्तियों को इन दुष्कृत्यों में न खोकर सत्कायों में अथवा आत्मविकास के प्रयोजनों में, अथवा अध्यात्म संवर की गधना के माध्यम से अहिंसा-सत्यादि के आचरण में लगा सकते थे।
कई लोग अपनी मानसिक और बौद्धिक शक्तियों का ह्रास निरर्थक कल्पनाओं, बहमों तथा आशंकाओं में आर्तध्यान और रौद्रध्यान में लगाकर करते रहते हैं। यह अपने हाथों से अपनी झोंपड़ी जलाना है। व्यर्थ की चिन्ता, कल्पना, ईर्ष्या, द्वेषभाव, घणा, वैमनस्य, ठगी, चोरी, डकैती, बलात्कार आदि का प्लान मन ही मन बनाने वाले अपनी ही बनाई हुई चिता में स्वयं झुलसकर अपनी मानसिक और बौद्धिक शक्ति का दुर्व्यय करते रहते हैं।
१. देखें-उत्तराध्ययन सूत्र का १३वाँ चित्त-सम्भूतीय अध्ययन
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