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________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति 'सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०१५ कई व्यक्ति आवारा भटकते हैं। किसी काम में उनका मन नहीं लगता । फलतः वे ताश, शतरंज या ऐसे ही, किसी व्यर्थ की पंचायत में पड़ जाते हैं। कई लोगों की आदत बिना बुलाए किसी के यहाँ टपकने की होती है। कई व्यक्ति बैठे-बैठे टांगें हिलाया करते हैं, कई नाखून से जमीन कुरेदते रहते हैं। कई कँधे उचकाते रहते हैं। कई उंगलियाँ मरोड़ते हैं, कई सिर झटकते हैं, कोई सीटी बजाते हैं। या कई फालतू गपशप में, कई परनिन्दा, चुगली में अपना समय खोते हैं। इस तरह शारीरिक शक्तियों को खर्च करना आजकल आम बात हो गई है। यों देखने में यह बात साधारण-सी है परन्तु शक्ति का थोड़ा-थोड़ा अपव्यय भी जीवनभर में जाकर कितना बड़ा हो जाता है। यह शक्ति ह्रास का क्रिया कलाप बूंद-बूंद करके घड़ा खाली करने जैसा है। ? आध्यात्मिक संवर का अभ्यास : सभी शक्तियों का क्षरण रोकने का कारण आध्यात्मिक संवर का अभ्यास करने से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक शक्तियों का क्षरण रोका जा सकता है। संवर से इन शक्तियों का अपव्यय रोका जाता है। मानसिक उद्वेगों से बचा जाता है। इनकी प्रवृत्तियों को अधिकाधिक विश्राम देकर खोई हुई शक्ति को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। रात्रि में तो शयन करके आन्तरिक शक्ति की बैटरी को चार्ज किया जा सकता है; दिन में भी ध्यान, मौन, चर्या - विवेक, यनाचार आदि के द्वारा अपने तन-मन को बुद्धि को विश्राम देकर उनकी शक्तियों को पुनः अर्जित और संचित कर सकते हैं। आत्मशक्तियों का संचय क्यों और किसलिए? आत्मशक्तियों को संचित, अर्जित और सुरक्षित और जागृत रखकर क्या करना है ? इसके उत्तर में यही कहा जा सकता है कि हमें अपने आप से प्रश्न करना चाहिए कि हमें आत्मा को किस ओर ले जाना है? ऊपर की ओर या नीचे की ओर ? लोक की दृष्टि से ऊपर देवलोक है, और लोक के अन्त में सर्वोपरि शाश्वत स्थान, जो शिव, अचल, निरामय, अनन्त, अक्षय, अव्याबाध, अपुनरागमन स्थल सिद्धालय है-मोक्षस्थान है, और नीचे नरकलोक है। अशुभ कर्मों के कारण नरक - तिर्यञ्चलोक मिलता है, शुभकर्मों के कारण देवलोक - मनुष्यलोक । और शुद्ध अबन्धक कर्मों के कारण और अन्त में अष्टविध कर्मों से सर्वथा मुक्त होने पर मोक्षलोक मिलता है। जहाँ दुःखों का आत्यन्तिक क्षय हो जाता है। आत्मार्थी और मुमुक्षु साधक तो ऊर्ध्वगमन ही चाहेगा। ऊर्ध्वगमन आत्मशक्तियों को अध्यात्मसंवर के माध्यम से अर्जित, सुरक्षित, संचित करने से ही हो सकता है। १. अखण्डज्योति अप्रैल १९७९ से भावांश ग्रहण, पृ. २० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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