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________________ अध्यात्मसंवर की सिद्धि : आत्मशक्ति सुरक्षा और आत्मयुद्ध से १०१३ उसके सहारे वह आत्मा की अनन्त चतुष्टयसम्पदा को प्राप्त करके आत्मा से परमात्मा बन सकता है। इसके विपरीत यदि आत्मा की अपारशक्तियों को निरर्थक सांसारिक कार्यों में खर्च करता रहेगा तो आत्मबल का ह्रास हो जाएगा। फलतः ऐसा व्यक्ति संशयी, प्रमादी, संकोची और भयभीत बना रहेगा। उसके शरीर में तत्परता और मन में जागरूकता न होने से वह आत्मा के इस निजीगुण-आत्मशक्ति (वीर्य) से वंचित हो जाएगा।' आत्मा की रक्षा, क्यों और कैसे हो? इसलिए 'दशवैकालिक सूत्र' में कहा गया है - "आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए।" वहाँ व्याख्याकार ने शंका प्रस्तुत करके समाधान किया है कि आत्मा तो कभी मरती नहीं है, फिर उसकी रक्षा का विधान क्यों किया गया ? इसका समाधान यह है कि आत्मा के पूर्वोक्त पांच लक्षणों के अनुसार ज्ञानात्मा, दर्शनात्मा, चारित्रात्मा, वीर्यात्मा तथा उपयोगात्मा इन पांचों की क्रोध, मान, माया लोभ, राग, द्वेष, मोह आदि से रक्षा करनी चाहिए। आत्मरक्षा कैसे करनी चाहिए? इस प्रश्न का उत्तर मूलगाथा में दिया गयाइन्द्रियों की बहिर्मुखी वृत्ति को रोककर तथा इन्द्रियों को विषय-विकारों से निवृत्त करके आत्मा की परिचर्या में सुसमाहित (एकाग्र) करके । अध्यात्म संवर का फलितार्थ भी आत्मा की सतत रक्षा करना है। जो आत्मा अध्यात्म संवर के माध्यम से रक्षित नहीं होतीं, वे एकेन्द्रिय आदि नानाविध जातियों (जन्म-मरणरूप संसार) के पथ की पथिक होती हैं और पूर्वकृत कर्मवश वहाँ अनेकानेक असह्य दुःख भोगती हैं। आत्मा की रक्षा करने का अर्थ है-आत्मा के निजीगुणों की रक्षा करना । शक्तियों का दुरुपयोग रोकने से आत्मिक शक्ति संचित-विकसित होती है 'नियमसार' में बताया गया है कि " (आत्म) ज्ञानी ऐसा चिन्तन करे कि मैं (आत्मा) केवल शक्तिस्वरूप हूँ।" यों देखा जाए तो मनुष्य शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आत्मिक सभी प्रकार की शक्तियों का भण्डार है। इसी के बलबूते पर उसने १. अखण्ड ज्योति, जुलाई १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. २ २. "अप्पा हु खलु सततं रक्खि अव्वो ।” सव्विँदिएहिं सुसमाइएहिं ॥ अरक्खिओ जाइप उवे । सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्च ॥ - दशवै. चू. २ गा. १६ तथा इसकी व्याख्या (आ. प्र. समिति, ब्यावर ) पृ. ४२० ३. "केवल-सत्ति-सहावो सोहं, इदि चिंतए णाणी । " - नियमसार ९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only 4 www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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