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________________ १०१२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) आत्मबल की वृद्धि के बजाय शरीरादि बल बढ़ाते हैं आचारांगसूत्र के उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि इन सब बलों का उपयोग अधिकांश आत्मबल (आध्यात्मिक शक्ति) हीन मानव दूसरों को मारने, सताने, रौब जमाने, अहंकार को पुष्ट करने में लगाते हैं। इस प्रकार वे अपनी शक्ति का उपयोग संवर की अपेक्षा आस्रवों को बढ़ाने में ही करते हैं। सांसारिक लोग मानते हैं कि शरीरबल से श्रम करके कमाने, खाने और पचाने का लाभ मिलता है। बुद्धिबल से अधिक महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों को संभालने तथा निर्णय करने का कार्य हो सकता है। धनबल के सहारे मानव अधिक ब्याज कमाने से लेकर व्यवसाय चलाने तक की सुविधा पा लेता है। संघबल या समूह बल के आधार पर साधनहीन लोग मिलजुलकर काम कर सकते हैं और दूसरों को प्रभावित करके अपना काम बना सकते हैं। इसी प्रकार साधनबल के आधार पर अकुशल व्यक्ति भी बुद्धिमानों और अनुभवियों से भी बढ़कर सफलता प्राप्त करते देखे जाते हैं। ये सारे चमत्कार भौतिक शक्ति के हैं। सांसारिक जीवन में भौतिक शक्ति को ही अधिक महत्त्व दिया जाता है । प्रायः प्रत्येक क्षेत्र में उसके लिए प्रयत्न भी किया जाता है। भौतिक बलों का मनमाना उपयोग : आत्मिक सम्पदा नष्ट करने में आश्चर्य यह है कि लोग इन भौतिक शक्तियों को प्राप्त करना ही जीवन का लक्ष्य समझते हैं। इन शक्तियों को पाकर इनका मनमाना उपयोग करते हैं। किन्तु इन सब बलों के साथ आत्मबल न हो तो समय पर अन्तःप्रेरणा की प्रखरता में कमी होने से उपलब्ध साधनों या सहायकबलों का समुचित सदुपयोग नहीं हो सकेगा। : आत्मबल होने से इन दूसरे बलों की आवश्यकता नहीं रहती, जो व्यक्ति को अन्धकारपूर्ण पापगर्त में धकेल देते हैं। आन्तरिक दुर्बलता, अन्यमनस्कता और निष्क्रियता बनकर छाई रहती है, ऐसा व्यक्ति अन्य भौतिक बलों को पाकर भी कुछ नहीं कर पाता। आलस्य और प्रमाद में ही उसकी जीवन-शक्ति नष्ट हो जाती है। बहुमूल्य आत्म- सम्पदा भी गल जाती है। अध्यात्म संवर के माध्यम से आत्मशक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। मनुष्य विषय-वासनाओं में, कामक्रीड़ाओं में, तथा मोह और अहंकार की वृद्धि करने वाले कार्यों में अपने तन-मन के बल को नष्ट कर डालता है, इन्द्रियबल को क्षीण कर डालता है, शरीर अनेक रोगों का घर बन जाता है। यदि वह सावधान और जाग्रत होकर अपनी शक्तियों को संजोए रखे, खोए नहीं, व्यर्थ के आम्रववर्द्धक कार्यकलापों में नष्ट न करे तो उसकी शक्तियाँ संचित रह सकती हैं। उस आत्मशक्ति का उपयोग वह समिति, गुप्ति, परीषह-जय, कषायविजय, चारित्रपालन एवं रत्नत्रयसाधना में लगाकर अध्यात्म संवर को उपलब्ध कर सकता है Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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