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________________ ५६४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) इन्द्रिय-इन्द्रियों द्वारा विषयों में राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति : साम्परायिक आसव का तृतीय आधार . साम्परायिक कर्मानव का तृतीय आधार तत्त्वार्थसूत्र में ‘इन्द्रिय' बताया गया है, किन्तु यहाँ इन्द्रिय शब्द का उपलक्षण से भावार्थ है-इन्द्रियों की विषयों या पदार्थों में राग द्वेषयुक्त प्रवृत्ति। क्योंकि स्वरूप मात्र से कोई भी इन्द्रिय अपने आप में कर्मबन्ध का कारण नहीं होती, और न ही इन्द्रियों की राग-द्वेष रहित प्रवृत्ति कर्मबन्धक का कारण होती है।' कषाययुक्त संसारी आत्मा जब भी इन्द्रियों के माध्यम से विषयों में प्रवृत्ति करती है, तब मनोज्ञ विषयों पर राग (मोह-आसक्ति) और अमनोज्ञ विषयों के प्रति द्वेष-घृणा' करने लगती है। वही कर्मानव तथा कर्मबन्ध का कारण होती है। इन्द्रियाँ पाँच हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय। ये पाँचों ज्ञानेन्द्रिय कहलाती हैं। यद्यपि पाँच कर्मेन्द्रिय और हैं, उनका विवरण वैदिक ग्रन्थों में मिलता है। कुछ विवेचन हम पहले “कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप" में कर आए हैं। प्रसंगवश यहाँ कुछ विवेचन करना अभीष्ट है। इन्द्रियों के द्वारा सहज रूप से विषयों में प्रवृत्ति दोषयुक्त नहीं, दोषयुक्त है राग-द्वेष वास्तव में, पाँचों इन्द्रियाँ स्वभावतः अपने-अपने विषय में प्रवृत्त होती हैं, होंगी ही। इन्द्रियों द्वारा विषयों में सहजरूप से प्रवृत्त होना अर्थात् नेत्र का किसी वस्तु को देखना, कान का सुनना, नाक का सूंघना, जीभ का चखना और स्पर्शन्द्रिय का स्पर्श करना, इतना दोषयुक्त नहीं है, किन्तु मन (नो-इन्द्रिय) जब अच्छे मनोज्ञ और अभीष्ट विषय के प्रति प्रीति, राग, मोह और आसक्ति करता है और बुरे अमनोज्ञ और अनिष्ट विषय के प्रति द्वेष, घृणा या द्रोह करता है, तब वह साम्परायिक आस्रव का कारण बनता है, और अनन्तर क्षण में अशुभ कर्मबन्ध का। आचारांग सूत्र का यह कथन सत्य है कि जो व्यक्ति ऊपर-नीचे, तिरछे सामने (सहज भाव से) रूपों को देखता है, शब्दों को सुनता है, (वहाँ तक तो ठीक है) परन्तु जब वह ऊपर, नीचे, तिरछे वस्तुओं को देखकर उनके रूपों में मूर्छित होता है, शब्दों को सुनकर उनमें भी मूर्छित (आसक्त) होता है, यह आसक्ति ही संसार (सम्पराय आम्रव) का कारण कहा गया है।" १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) पृ. १५१ २. देखें, कर्मविज्ञान के तृतीय खण्ड में 'कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप' नामक निबन्ध में इन्द्रिय और मन पर विवेचन, पृ. ४६३ से ४८४ ३. "उड्ढं अहं तिरिय पाईणं पासमाणे रूवाई पासति, सुणमाणं सद्दाई सुणेति। उड्ढे अहं तिरियं पाईणं मुच्छमाणे रूवेसु मुच्छति, सद्देसु यावि। एस लोए वियाहिए।" -आचारांग १/१/५/९४-९५-९६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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