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________________ कर्मों का आसव : स्वरूप और भेद ५६५ 'आचारांग सूत्र' में बताया गया है-आँखों से न देखना, कानों से शब्द टकराने पर न सुनना, नाक से पारिपार्श्विक वस्तु को न सूंघना, जीभ से सहज में उपभोग किये जाने वाले पदार्थों का न चखना और प्रतिलेखनादि के समय आवश्यक वस्त्रादि का स्पर्श न करना शक्य नहीं है, अर्थात्-स्वाभाविक रूप से आवश्यक विषयों का इन्द्रियों द्वारा ग्रहण न किया जाना शक्य नहीं है, किन्तु उन गृहीत विषयों के प्रति राग या द्वेष करना ही दोषयुक्त है, वही कर्माम्रव तथा कर्मबन्ध का कारण है।' भगवद्गीता में कहा गया है-“प्रत्येक इन्द्रिय के विषय (अर्थ) के साथ राग और द्वेष अव्यक्तरूप से अवस्थित हैं, अतः साधक को उन रागद्वेष के वश में नहीं होना चाहिए। इन्द्रिय विषयों के साथ मनःकल्पित राग-द्वेष ही आत्मा के लिए शत्रु हैं, वे ही कर्मबन्ध करवाकर दुर्गति प्राप्त कराने के कारण बनते हैं।" "स्वाधीन अन्तःकरण वाला जो व्यक्ति विषयों के प्रति रागद्वेष से रहित होकर अपने वश में की हुई इन्द्रियों से विषयों का उपभोग करता है, उसका अन्तःकरण प्रसन्नता, स्वच्छता (निर्मलता) को प्राप्त होता है। निष्कर्ष यह है कि इन्द्रियों को आवश्यकतानुसार अपने-अपने विषय में प्रवृत्त करते समय उस विषय की मनोज्ञता पर राग, मोह या आसक्ति न करे और अमनोज्ञता पर द्वेष, घृणा या अरुचि न करे। उदाहरणार्थ-एक व्यक्ति को रास्ते में चलते हुए सुन्दर सलौना बालक दृष्टिपथ में आ गया, उस समय बालक को देखकर उसके प्रति राग या आसक्ति न करे, इसी प्रकार एक कुष्ट रोगग्रस्त व्यक्ति को देखकर उसके प्रति घृणा या अरुचि मन में न करे। इसी प्रकार अन्य इन्द्रियों के विषय के प्रति सहज भाव से प्रयुक्त होने पर भी राग-द्वेष या प्रीति-अप्रीति का भाव न आने दिया जाए। यही तथ्य उत्तराध्ययन सूत्र में प्रतिपादित किया गया है-“समाधि (चित्त की स्वस्थता) की भावना वाला तपस्वी श्रमण, इन्द्रियों के जो मनोज्ञ विषय हैं, उनमें कदापि रागभाव न करे तथा उनके अमनोज्ञ विषयों में मन में द्वेषभावना लाए।" जैसे "चक्षु १: नो सक्का सोउं सद्दा, सोतविसयमागया। रागदोसा उ जे तत्य, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ नो सक्का रूवमदटुं चक्खुविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए || न सक्का गंधमग्घाउं, नासाविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्य, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ न सक्का रसमस्साउं जीहाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ न सक्का फासमवेएउं फासविसयमागय। रागदोसा उ जे तत्य, ते भिक्खू परिवज्जए ॥ -आचारांग सूत्र श्रु.२, अ. ३ उ.१५ सूत्र १३१ से १३५ तक २... (क) इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे राग-द्वेषौ व्यवस्थितौ । तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ || ३/३४ (ख) राग-द्वेष-वियुक्तस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन । आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥२/६४ -भगवद्गीता अ. ३/३४, अ.२/६४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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