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________________ कर्मों का आम्रव: स्वरूप और भेद ५६३ अर्थात्-जैसे बड़ आदि वृक्षों का काषाय रस श्लेष्म (चिपकने) का कारण है, वैसे ही आत्मा का क्रोधादि कषाय भी कर्मों के श्लेष (चिपकने) का कारण है।' पंचसंग्रह में कषाय का अर्थ किया गया है- "जो क्रोधादि जीव के सुख-दुःख-रूप बहुविध धान्य को उत्पन्न करने वाले कर्मरूपी खेत को कर्षते - जोतते हैं, जिनके लिए संसार की चारों गतियाँ मर्यादा (सीमा या मेंढ) रूप हैं, इस कारण उन्हें कषाय कहते हैं। राजवार्तिक में कहा गया है - चारित्र परिणामों का कषण- घात करने के कारण क्रोधादि चतुष्टय कषाय कहलाते हैं। अथवा क्रोधादि परिणाम आत्मा को दुर्गति में ले जाने के कारण आत्मस्वरूप का कषण- हनन करते हैं, इस कारण ये कषाय कहलाते हैं। अथवा कषाय वेदनीय (कर्म) के उदय से होने वाला क्रोधादिरूप कालुष्य ही कषाय है, जो आत्मा के स्वाभाविक रूप का कषण- हनन कर देता है। २ वस्तुतः कषायं सांसारिक जीवों के साथ पहले गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक तीव्रतम, तीव्रतर, मन्द, मन्दतर, किसी न किसी रूप में लगा हुआ है। जब तक कषाय जीव के साथ संलग्न रहता है, तब तक चतुर्गतिक संसार में उसका गमनागमन जारी रहता है, वह आत्मस्वरूप को, चारित्र के परिणामों को विकृत कर देता है, नष्ट कर देता है, आत्मा की छवि बिगाड़ देता है। कर्मों के आनव, योगों की चंचलता और तदनन्तर कर्मों के बन्ध का मूल कारण कषाय है। कषाय के मूल चार भेद हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ । इन्हीं के अवान्तर भेद प्रत्येक के चार-चार होते हैं। इनका विस्तृत वर्णन हम आगे बन्ध के प्रकरण में करेंगे। वास्तव में, कषाय ही साम्परायिक आम्नव और साम्परायिक कर्मबन्ध का प्रमुख कारण है। इसके निवारण या इन पर विजय पाने के लिए साधक को क्षमा, मार्दव, 'आर्जव और सन्तोष या आकिंचन्य धर्म की साधना करनी चाहिए। इसकी कुछ झाँकी "कर्मों के आने के पाँच आनवद्वार" नामक निबन्ध में पाठक देखें । ३ १. (क) कष्यते प्राणी विविधैर्दुः खैरस्मिन्निति कषः संसारः तस्य आयो लाभो येभ्यस्ते कषायाः ।" - आचार्य नमि । श्लेष हेतुस्तथा, क्रोधादिरप्यात्मनः . - सर्वार्थसिद्धि ६/४/३२० / ९ | (ख) कषाय इव कषायाः । यथा कषायो जैयग्रोधादिः कर्मश्लेषहेतुत्वात् कषाय इव कषाय इत्युच्येते ।” (ग) सुख दुक्खं बहुसरसं कम्मक्खित्तं कसेइ जीवस्सा संसारगदी मेढं तेण कसाओत्ति णं बिंति । (घ) चारित्र परिणाम - कषणात् कषायः । २. (क) क्रोधादि परिणामः कषति हिनस्त्यात्मानं . - पंचसंग्रह गा. १०-९ - राजवार्तिक ९/७/११/६०४/६ कुगति-प्रापणादिति कषायः । (ख) कषायवेदनीयस्योदयादात्मनः कालुष्यं कषाय इत्युच्यते ।” - राजवार्तिक ६/४/२/५०८/८ क्रोधादिरूपमुत्यद्यमानं - कषत्यात्मानं हिनस्तीति - राजवार्तिक २/६/२/१०८/२८ ३. कषाय के विषय में कुछ झाँकी इसी खण्ड में 'कर्मों के आने के पाँच आनवद्वार' में देखें। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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