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________________ ५६२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) इसलिए परिग्रह में लोभकषाय तो प्रत्यक्ष है ही, क्रोध, मान (अहंकार), माया, मोह आदि भी इसके पृष्ठपोषक हैं। इसलिए यह साम्परायिक कर्मानव का स्रोत है; मूलाधार है। १0 बाह्यपरिग्रह और १४ आभ्यन्तर परिग्रह जैनाचार्यों ने बताए हैं। . अव्रत के ये पाँच अंग : एक विश्लेषण - अव्रत के इन पाँचों अंगों की सदोषता और पापकर्मानव प्राप्ति का आधार राग, द्वेष, कषाय और मोह है। वैसे देखा जाए तो जैनाचार्यों ने हिंसा रूप अव्रत की व्यापक व्याख्या में असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह को भी समाविष्ट कर लिया है। फिर भी आम आदमियों के सरलता से समझने के लिए पृथक्-पृथक् निर्देश किया है। ये पाँचों ही दोष अव्रत हैं, अर्थात् मनुष्य इनके त्याग के लिए या इनकी मर्यादा के लिए व्रतनियमबद्ध न हो तो मनुष्य पापकर्मों का अर्जन कर लेता है-साम्परायिक कर्मानव तथा साम्परायिक पापकर्मबन्ध के रूप में। . अतः इन पापकर्मों के आगमन को रोकने के लिए पूर्वोक्त रूप में आनवद्वार बन्द करना तथा इनके प्रतिपक्षी अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, सन्तोष, समता, मैत्री, क्षमा, दया, निर्लोभता, सरलता, शौच, तप, त्याग आदि धर्मागों को अपनाना आवश्यक है। अथवा गृहस्थ जीवन में महारम्भ, महापरिग्रह, पन्द्रह कर्मादान रूप खरकर्म (व्यवसाय) का सर्वथा त्याग करना, एवं हिंसा आदि दोषों के निवारणार्थ अणुव्रतगुणव्रत-शिक्षाव्रत आदि को स्वीकार करके देशतः (अंशतः) विरत होना आवश्यक है। अर्थात् अपरिहार्य होने से कुछ बातों के प्रति उपेक्षा और कुछ के साथ तालमेल बिठाने की रीति अपनानी चाहिए।' आगे संवर के प्रकरण में इन पर विस्तृत विवेचन किया जाएगा। साम्परायिक आनव का द्वितीय आधार : कषाय वैसे देखा जाए तो साम्परायिक आसव का मुख्य आधार कषाय ही है। कषायों के आधार पर ही मनुष्य जन्म-मरणादिरूप संसार में परिभ्रमण करता है, संसारवृद्धि करता कषाय का निर्वचनार्थ किया गया है-कष का अर्थ है-संसार, उसका आय-लाभ ही कषाय है, और सम्पराय का अर्थ भी संसार है, और साम्परायिक का अर्थ है-संसार का प्रयोजक-संसार से जोड़े रखने वाला। विभिन्न पहलुओं से पंचसंग्रह (प्रा.) सर्वार्थसिद्धि एवं राजवार्तिक आदि ग्रन्थों में कषाय के विभिन्न व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ दिये गए हैं, उन्हें भी जान लेना आवश्यक है। ___ सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-जो काषाय रस के समान हो, वह कषाय है। १. तत्त्वार्थसूत्र विवेचन (पं. सुखलाल जी) पृ. १७९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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