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________________ ९८८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) ____ अध्यात्म संवर का साधक आत्मद्रष्टा अथवा भेदज्ञाता होता है, इसलिए जब ये इन्द्रियाँ आदि अज्ञान, रागद्वेष आदि विभावों-विकारों से लिप्त होने लगते हैं, तब वह तुरन्त सावधान होकर उन्हें उसी तरह हटा लेता है, जिस प्रकार मुँह पर मक्खी बैठते ही मनुष्य तत्काल उसे हटा लेता है। अर्थात-स्थितात्मा या आत्मस्थ साधक इन उपकरणों के द्वारा जानना-देखना आदि क्रियाएँ करता हुआ भी उनके विषयों के प्रति रागद्वेष नहीं करता, कषाय भावों में लिप्त नहीं होता। ......... 'आचारांग' में बताया गया है कि इस प्रकार की एकत्वानुप्रेक्षा से सहाय-विमोक्ष की भावना का उद्रेक होता है और साधक सहज ही लाघव धर्म तथा तप का लाभ प्राप्त कर लेता है। यही अध्यात्म संवर की साधना का एक रूप है। . . एकमात्र आत्मा का सम्प्रेक्षण अध्यात्म संवर का उत्कृष्ट रूप आचारांग सूत्र में कहा गया है कि "(अध्यात्म संवर के सन्दर्भ में) आज्ञाकांक्षी पण्डित शरीर एवं कर्म के प्रति अनासक्त (स्नेह-रहित) होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ शरीर (कर्म-शरीर) को प्रकम्पित कर डाले, (तपस्या द्वारा) अपने कषायात्मक शरीर को कृश करे, जीर्ण करे।" ___ चूर्णिकार ने इस सूत्र पर एकत्वानुप्रेक्षा तथा अन्यात्वानुप्रेक्ष-परक व्याख्याएँ की हैं। एकाकी (एकमात्र) आत्मा की सम्प्रेक्षणा इस प्रकार करनी चाहिए-“आत्मा अकेला (स्वयं) ही कर्म करता है और अकेला ही उसका फल भोगता है। अकेला ही जन्मता है और अकेला ही जन्मान्तर में जाता है।" ... १. (क) महावीर की साधना का रहस्य से सार संक्षिप्त, पृ. १३१-१३२ . (ख) मनो-बुद्धयहंकारचित्तानि नाऽहं, न च श्रोत्रजिह्ने न च घ्राणनेत्रे। न च व्योमभूमि न तेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥१॥ .. न च प्राणसंज्ञो, न वै सप्त धातुर्नवा पंचकोशः ।। न वाक् पाणिपादौ न चोपस्थ पप्पू चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥२॥. न मे द्वेषरागौ, न मे लोभमोहौ, मदोनैव मे नैव मात्सर्यभावः ।। न धर्मो न चार्यों ने कामो न मोक्षः चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥ न पुण्यं न पापं न सौख्यं नं दुःखं, न मंत्रो न तीर्थ, न वेदा न यज्ञाः। अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता, चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥ -आत्मषटका ४॥ (ग) एगो मे सासदो अप्पा, पाण-दंसण-लक्खणो। ... सेसा मे बाहिरा भावा, सब्वे.संजोगलक्खणा ॥ -नियमसार १०२ (घ) अनोजीवो, अन्नं इमं सरीरं। " -सूत्रकृतांग २/१/९ (ङ) अन्ने खलु कामभोगा, अन्नो अहमसि। -सूत्र कृतांग २/१/१३ (च) एगो अहमसि न मे अत्यि कोइ, न वाऽहमवि कस्सइ। एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणेज्जा, लाघवियं आगममाणे, तवे से अभिसमन्नागए भवइ। . . -आचारांग श्रु. १ अ.८, उ. ५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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