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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९८९ ., "मैं सदैव अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, और न मैं किसी दूसरे का हूँ। यह संसार अनर्थ का सार है। यहाँ कौन किसका है ? कौन स्वजन या परजन है ? ये स्वजन और परजन तो संसारचक्र में परिभ्रमण करते हुए किसी समय (जन्म) में स्वजन और फिर परजन हो जाते हैं। एक समय ऐसा आता है, जब न कोई स्वजन रहता है, न परजन।" "आप इस प्रकार का चिन्तन करें कि मैं अकेला हूँ। पहले भी मेरा कोई नहीं था, और पीछे भी मेरा कोई नहीं है। अपने (मोहनीय आदि) कर्मों के कारण मुझे दूसरों को . 'अपना मानने की भ्रान्ति हो रही है। वास्तव में, मैं पहले भी अकेला था, अब भी अकेला हूँ और पीछे भी मैं अकेला ही रहूँगा।" यह है कषायात्मारूप कर्मशरीर से होने वाले आम्नवों का निरोध करने हेतु आत्मैकत्व-सम्प्रेक्षणरूप अध्यात्म संवर। एकमात्र आत्मा की शरण में चले जाने पर कष्ट का आभास नहीं होता एकमात्र आत्मा के सान्निध्य में जब व्यक्ति चला जाता है, तब उसे शरीर से होने वाले कष्टों या सुखों का अनुभव नहीं होता; न ही वह शरीर के प्रति मोह, राग एवं द्वेष करता है। देहाध्यास छोड़ कर आत्मा में प्रवेश करता या एकमात्र आत्मा की शरण में चला जाता है, उसके सभी दुःख-कष्ट समाप्त हो जाते हैं, उसे किसी भी कष्ट, दुःख का अनुभव-संवेदन नहीं होता। . भगवान् महावीर ने आचारांग सूत्र में कहा है-“वीर पुरुष इस महावीथी (अध्यात्म संवर रूप महामार्ग) के प्रति प्रणत-समर्पित हो जाते हैं।" ____भगवान् महावीर स्वयं अध्यात्म संवर की परिपूर्णता के लिए अपनी आत्मा के प्रति प्रणत-समर्पित हो चुके थे। आत्मा ही उनका भगवान् और आत्मा ही देवाधिदेव तथा आत्मा ही परमगुरु था। उनके समक्ष केवल आत्मा ही थी। आत्मा ही उनके लिए सर्वस्व, जीवनाधार था। आत्म-सरोवर में वे गहरी डुबकी लगाकर रहते थे। इस कारण भयंकर से भयंकर उपसर्ग भी उन्हें विचलित नहीं कर पाए। आत्म समर्पित साधक बाहुबलिमुनि की अध्यात्म संबर साधना बाहुबलिमुनि ऐसे ही आत्म-समर्पित परम साधक थे। वे देहाध्यास त्यागकर कायोत्सर्ग करके आत्म समाधि में स्थिर हो गए थे। सर्दी, वर्षा, आँधी, भूकम्प, विद्युत्पात आदि किसी भी प्रकृतिकृत कष्ट की उन्हें बिलकुल अनुभूति नहीं हुई। पक्षियों ने उनके कान, हाथ आदि पर घोंसले बना लिये, शरीर पर खेलें छा गईं, तब भी उन्हें शरीरगत कष्ट का अनुभव नहीं हुआ, क्योंकि वे एकमात्र आत्मा में तल्लीन हो गए थे। - भगवान् महावीर भी मृत्यु के कष्ट को भी जीत चुके थे। भयंकर से भयंकर कष्टों (उपसर्गों) के समय भी वे अविचल रहे, उन्हें उस कष्ट का आभास तक नहीं हुआ। यदि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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