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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९८७ - उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है-अध्यात्मसंवर का साधक लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवित-मरण, निन्दा-प्रशंसा, सम्मान-अपमान तथा भय-प्रलोभन में सम रहता है। एकमात्र सच्चिदानन्द स्वरूप आत्मा हूँ, अन्य नहीं बही आत्मदर्शन की सिद्धि . इतना भेदज्ञान, विवेकख्याति, या देहाध्यास से उपरति उसी में हो सकती है, जिसका आत्मा के सच्चे स्वरूप का, परभावों से या विभावों से भिन्नता का ज्ञान सुदृढ़ हो। वस्तुतः आत्मज्ञान एवं दर्शन के अभ्यासी साधक की दृष्टि में जब एकमात्र आत्मा ही मुख्य रहता है, तब उसका मनन-चिन्तन कैसा होता है, इसकी कुछ झाँकी ‘आत्मषटक' में इस प्रकार मिलती है. . "मैं मन, बुद्धि, चित्त या अहंकार रूप नहीं हूँ; मैं कान, नाक, जीभ या नेत्र भी नहीं हूँ। मैं आकाश, पृथ्वी, तेज या वायु नहीं हूँ। मैं तो मंगलकारी (शिव) तथा कल्याणकारी (शिव) चिदानन्द स्वरूप आत्मा हूँ। मैं प्राण, पंचप्राण (वायु), सप्त धातु तथा पंचकर्मेन्द्रिय भी नहीं हूँ। ये राग-द्वेष या लोभ-मोह आदि भी मेरे नहीं हैं। न ही मद-मात्सर्य भाव मेरे अपने हैं। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष भी मेरे नहीं हैं। न पुण्य मेरा है, न पाप। मंत्र, तीर्थ, वेद (शास्त्र) या यज्ञ भी मेरे नहीं हैं। न भोज्य पदार्थ मेरे हैं, न मैं (आत्मा) उनका भोक्ता हूँ। मैं तो एकमात्र कल्याणकर मंगलकर सचिदानन्दरूप आत्मा आत्म-बाह्य भाव मैं या मेरे नहीं, मैं अन्य हूँ :आत्मद्रष्टा का चिन्तन 'नियमसार' में यही बताया है-"एकमात्र ज्ञानदर्शनस्वरूप मेरा आत्मा ही शाश्वत तत्व है। इससे भिन्न जितने भी (राग-द्वेष, कर्म, शरीर आदि) भाव हैं, वे सब संयोगजन्य बाह्यभाव हैं, वे मेरे नहीं हैं।" . आत्मज्ञाता के हृदय से ये उद्गार निकलते हैं-'यह जीव (आत्मा) अन्य है, और यह शरीर अन्य है।' अर्थात् उसे यह दृढ़ प्रतीति हो जाती है कि आत्मा पृथक् है, और ये अदृश्यमान या दृश्यमान पौद्गलिक पदार्थ या कषायादि विभाव पृथक् हैं। इन्द्रियाँ मन आदि आत्मा को जानने-देखने आदि के लिए उपकरणमात्र हैं। "इन्द्रियों और मन से जन्य ये कामभोग भिन्न हैं, मैं इनसे भिन्न हूँ।" सम्पर्क में आएँ तो इन्हें केवल जानना-देखना ही पर्याप्त है। इनके प्रति अज्ञान, . मोह, राग-द्वेष, कषाय तथा प्रियता-अप्रियता आदि संवेदन के चक्कर में पड़ना उचित नहीं। १. लाभालाभे सुहे दुक्खे जीविए मरणे तहा। ........ समो णिन्दा पसंसासु, तहा माणावमाणओ॥ -उत्तराध्ययन सूत्र अ. १९ गाथा ९० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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