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________________ ९८६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) आचारांगसूत्र के अनुसार जो इस प्रकार कर्मों के आदान (कषायों या आनवों) का निरोध करता है, वह स्वकृत कर्मों का भेदन करता है। भेदविज्ञाता आत्मदर्शी अर्हनक श्रावक ज्ञाता-द्रष्टा बना रहा ___अर्हन्नक श्रावक के समक्ष एक देव उसके आत्म धर्म की परीक्षा करने हेत विकराल रूप धारण करके उपस्थित होता है। वह जिस जलयान में बैठकर अपने साथी व्यापारियों के साथ जा रहा था, उस जहाज को उलट देने के लिए तत्पर था, और अर्हन्नक को धमकी दे रहा था कि “यदि तूने आत्मधर्म को असत्य नहीं कहा तो तुझे और. तेरे सब साथियों को समुद्र में डुबा दूंगा।" कितना भंयकर आतंक था। परन्तु आत्मद्रष्टा-ज्ञाता अर्हन्नक का इससे एक रोम भी विचलित नहीं हुआ। उसने साथियों को विचलित होते देख, उन्हें भी धर्म में सस्थिर किया। देव भी उसकी आत्मधर्म (आत्मा के ज्ञाता द्रष्टारूप धर्म) में दृढ़ता देखकर उसके चरणों में झुक गया, प्रसन्न होकर विदा हुआ। ज्ञानचेतना में सुदृढ़ रहने वाले अध्यात्म संवर साधक की वृत्ति या दृष्टि ऐसा आत्मज्ञातृत्व या आत्मदृष्टत्व तभी प्रकट हो सकता है, जब व्यक्ति की दृष्टि अध्यात्म संवर लक्ष्यी हो ऐसा। साधक ज्ञानचेतना में सुदृढ़ रहता है। बह गाली देने वाले, निन्दा करने वाले या अपना अहित करने वाले के प्रति भी मन में द्वेष या रोष न लाए, वह अपने आप में स्थिर रहे। यही अध्यात्म संवर है, आत्मनिग्रह या आत्मनियंत्रण है। आम्सव लक्ष्यी दृष्टि वाला व्यक्ति तो ऐसे अवसर पर रोष द्वेष तथा प्रतीकार करता है। सुकरात को आत्मा की अमरता पर दृढ़ विश्वास : आत्म-दर्शन का प्रतीक सकरात को जिस समय जहर का प्याला पीने को दिया जा रहा था। उस समय उसके भक्त, मित्र और समर्थक व्याकुल, उदास और खिन्न होकर कहने लगे-आप इसे मत पीजिए। अन्यथा, मर जाएँगे। फिर हम आपको कहाँ पाएँगे? परन्तु सुकरात के मन में कोई घबराहट, विचलता या व्याकुलता नहीं थी। वह शान्ति और धैर्य से बैठा था। जब उसके अनुयायियों ने बार-बार कहा तो सुकरात ने कहा-"मित्रो ! क्यों इतने व्याकुल हो रहे हो ? तुम्हें क्यों कष्ट हो रहा है ? इस विश्व में आस्तिक भी हैं और नास्तिक भी। आस्तिक कहते हैं, आत्मा है, पर वह अमर है। जब आत्मा अमर है तो मुझे मरने की क्या चिन्ता है ? इसी प्रकार नास्तिक कहते हैं कि आत्मा है ही नहीं, तब कौन मरेगा ? नास्तिकों की दृष्टि से भी मुझे मरने की कोई चिन्ता नहीं है।" . १. देखें-आयाणं सगडाब्भि (आचा. १/३/४/१२८) सूत्र की व्याख्या, पृ. ११५ (आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर) २. देखें ज्ञाताधर्मकथासूत्र अ.८ में अर्हन्नक की जीवन घटना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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