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________________ ____ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना ९७५ वियोग और अनिष्ट पदार्थों के संयोग से बचने और इष्टपदार्थों को अधिकाधिक अपनाने की उधेड़बुन में होती रहती है। आत्मा की ओर तथा आत्मा में निहित पूर्वोक्त असीम ज्ञानादि चतुष्टय की ओर उसका ध्यान प्रायः नहीं जाता। जाता भी है तो ऊपर-ऊपर से उनकी जानकारी भर कर ली जाती है, उनको हृदयंगम करने, उन्हें अपने जीवन में प्रकट करने में दत्तचित्त होकर उन्हीं को प्राप्त करने में लगे रहने की ओर से प्रायः उपेक्षा की जाती है। 'परमात्म प्रकाश' के अनुसार शास्त्र आत्मबोध के लिए पढ़े जाते हैं, परन्तु शास्त्र पढ़कर भी जिसे बोध हृदयंगम नहीं हुआ, जिसके रागादि विकल्प नहीं मिटे, आत्मा में सदैव निवास करने वाले परमात्मा को नहीं जाना-माना, तब तक वह मूर्ख-मूढ़ ही है।' किसी व्यक्ति के पास अपने पिता की असीम सम्पत्ति तिजोरी में रखी हुई हो, उसके पास उस सम्पत्ति की सूची भी है, फिर भी वह उस सम्पत्ति को कभी तिजोरी खोलकर उसके अन्दर झाँक कर देखे नहीं, उस सम्पत्ति पर दूसरे लोग कब्जा जमाने की ताक में बैठे हैं, इसका उसे बिलकुल ही भान न रहे। वह बाहर ही बाहर विभिन्न प्रवृत्तियों में दौड़धूप करता रहे। पिता से प्राप्त अपनी सम्पत्ति को अपने पास होते हुए भी उससे अनभिज्ञ रहकर उसे उपलब्ध नहीं कर पाता। इसी प्रकार जो व्यक्ति अपने पास ज्ञानादि आध्यात्मिक सम्पदा होते हुए भी तथा वीतरांग सर्वज्ञ आप्तपुरुषों द्वारा बताये जाने पर भी जो व्यक्ति उसकी ओर झकि-देखे ही नहीं, उसे उपलब्ध करने का विचार तक न करे, तथा सहज स्वभाव से प्राप्त उस आध्यात्मिक सम्पदा को केवल तन-मन की तिजोरी में ही बन्द रहने दे; वह अपनी आत्म सम्पदा को कैसे उपलब्ध कर सकता है ? जो व्यक्ति परम पिता परमात्मा के समान स्वयं की आत्मा को प्राप्त ज्ञानादि अनन्तचतुष्टयं की निधि को पाकर भी अज्ञानवश भौतिक सम्पदा को ही वास्तविक सम्पत्ति मनकर चले, भौतिक विषयसुखों को ही वास्तविक सुख मानकर उन्हीं में रचा-पचा रहे, वह आत्मसमृद्धि और आत्मिक सुख को कैसे प्राप्त कर सकता है ? वह पूर्वकृत शुभकर्मोदयवश दुर्लभ मनुष्य जन्म प्राप्त करके भी मोहनीयादि कर्मवश मिथ्याज्ञान और मिथ्यात्व के वशीभूत होकर अपनी उस अध्यात्म सम्पदा एवं आत्मिक निधि से वंचित रहता है। इसके फलस्वरूप वह अज्ञानवश अधिकाधिक कर्मों १. बोह-णिमित्ते सत्यु किल लोए पढिज्जइ इत्यु। तेण वि बोहु ण जासु, वरु सो कि मूदु ण तत्यु ॥ सत्यु पढेतु वि होइ जडु जो ण-हणेइ वियपु। देहि वसंतु वि णिम्मलउ णवि मण्णइ परमषु ॥ -परमात्म प्रकाश अ. २, दो. 6४, ८३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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