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________________ ९७६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) का संचय करता रहता है, जिसके कारण उसे नाना गतियों और योनियों में जन्म लेकर अनेक दुःख उठाने पड़ते हैं। भौतिक सम्पदाओं की अपेक्षा आध्यात्मिक सम्पदाएँ अत्यधिक सुखकर तथा हितकर ___ इस तथ्य की ओर से आँखें मूंदकर अधिकांश मानव भौतिक सम्पदाओं को उपार्जित करने में अथवा विनाशकारी वैज्ञानिक उपलब्धियाँ प्राप्त करने में तल्लीन हो रहे हैं। संसार में धन, बल, पद, सत्ता, वैभव, वर्चस्व, प्रतिष्ठा, बृहत् परिवार, भौतिक विद्याओं या लौकिक विद्याओं की प्राप्ति या क्रियाकुशलता आदि को सम्पदा माना जाता है। परन्तु इनके सहारे से संवर मार्ग अथवा मोक्षलक्ष्यी शाश्वत सुखगामी मार्ग की ओर बढ़ने के बजाय इन्द्रियतृप्ति, तृष्णा, अहंता-ममता आदि आस्रव मार्गों का ही पोषण होता है। इसके कारण मनुष्य अपनी अनन्तज्ञानादि चतुष्टयरूप आध्यात्मिक सम्पदा से वंचित हो जाता है। - इसके विपरीत जो व्यक्ति आत्मसंवर के पथ पर चलने की ठान लेते हैं, वे भौतिक सम्पदाओं और भौतिक उपलब्धियों को उपार्जित करने में अपना समय और श्रम नहीं खोते। अध्यात्मसंवर के मार्ग पर चलने से उसे अनायास ही अनेक शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक, एन्द्रियक तथा प्राणबल आदि भौतिक सम्पदाएँ प्राप्त हो जाती हैं। ___ जैव शास्त्रानुसार उसे उत्तम संहनन, उत्तम संस्थान, पूर्ण इन्द्रियाँ, स्वस्थ तन-मन, मनोबल, वचनबल एवं कायबल आदि उपलब्धियों तथा अन्य अनेक लब्धियाँ सिद्धियाँ भी अनायास ही उपलब्ध हो जाती हैं। जिस सुखी जीवन के लिए भौतिक उपलब्धियाँ और भौतिक सम्पदाएँ मनुष्य प्राप्त करता है, वह सुख आनवमार्गी मानव से दूरातिदूर होता जाता है, जबकि संवरमार्गी साधक के चरणों में वे लौटती हैं; और सुख-शान्ति में वृद्धि करती है। शास्त्रों में धर्माचार्य की आठ सम्पदाएं बताई गई है-आचार, श्रुत, शरीर, वचन, वाचना, मति, प्रयोगमति और संग्रह परिज्ञा सम्पदा। उनकी ये आठ सम्पदाएँ आत्म सम्पदा में अभिवृद्धि के लिए होती है। . भौतिक उपलब्धियाँ तभी तक आकर्षक लगती हैं, जब तक वे मिल नहीं जाती। मिलने पर उनके साथ जुड़े हुए झंझट और उन्माद, तथा अहत्व और ममत्व इतने अधिक विषम होते हैं कि उनके कारण मानव पहले से भी अधिक अशान्त और उद्विग्न रहने. लगता है। वस्तुस्थिति को नहीं समझने वाला भौतिक सम्पत्तिधारी ईर्ष्यालुओं, असन्तुष्ट जनों, अपहरणकारी चोर-डाकुओं, लुटेरों, शासनकर्ताओं तथा सम्पत्तिलोभी मित्रों से घिरा रहता है। . .. ... Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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