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________________ अध्यात्म-संवर का स्वरूप, प्रयोजन और उसकी साधना आत्मा अनन्तचतुष्टय-सम्पन्न होते हुए भी दरिद्र, अभावपीड़ित और पराधीन क्यों? आत्मा अपने आप में अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, असीम आनन्द (आत्मिक सुख) एवं अनन्तशक्ति (आत्मवीर्य) से सम्पन्न है। इसके पास ज्ञान और दर्शन की असीम निधि विद्यमान है; इसके पास सुख और शान्ति का, आनन्द और उल्लास का असीम भण्डार है, इसके पास बल, वीर्य, पुरुषार्थ और पराक्रम का असीम खजाना है। फिर क्या कारण है कि इतनी सब निधि और समृद्धि होते हुए भी वह अज्ञानी है, अन्धविश्वासी है, मोह-ममत्व से ग्रस्त है, दुःखी और अशान्त है, पराधीन और परमुखापेक्षी बना हुआ है ? अत्यन्त दुर्बल, कायर, दब्बू और भयभीत है ? बाहर के सुख-साधनों, बाह्य सम्पदा और समृद्धि को बटोरने में अहर्निशं क्यों लगा रहता है ? ___अध्यात्मज्ञानी महापुरुष कहते हैं कि मनुष्य सच्चिदानन्दमय है, समस्त तीर्थकर भगवान् कहते हैं कि मनुष्य परमात्मा के समान अनन्त-ज्ञान-दर्शन-सुख-शक्ति से सम्पन्न है, किन्तु वह अपनी इस निधि और समृद्धि से अनभिज्ञ है। वह अन्तर में झांककर अपनी निधि और समृद्धि को जानने-देखने का यल भी नहीं करता। वह अन्तर्मुखी नहीं है, बहिर्मुखी बना हुआ है। वह पुस्तकों, ग्रन्थों आदि के श्रवण एवं पठन से अवश्य ही जानता है कि आत्मा परमात्मस्वरूप है, अनन्तज्ञानादि-चतुष्टय से सम्पन्न है, परन्तु उसका यह ज्ञान ज्ञानावरणीय कर्मों से, मोहनीय कर्मों से दबा-छिपा है। आत्मा में सम्यग्ज्ञान के होते हुए भी वह भ्रान्तिवश एवं मूढ़तावश भौतिक और बाह्य जानकारी को ही ज्ञान समझकर अज्ञानी बना फिरता है। मिथ्याज्ञान के चक्कर में पड़कर वह प्रवृत्ति तो बहुत करता है, परन्तु उसे आनन्द, सुख-शान्ति और प्रसन्नता की उपलब्धि नहीं होती। उसका समय और श्रम व्यर्थ जाता है। अधिक से अधिक सौ वर्ष की औसत आयु होते हुए भी उसकी अधिकतर भाग-दौड़ इन्हीं वैषयिक सुखों, भौतिक सुख-साधनों को पाने, उनका संरक्षण और उपभोग करने की चिन्ता में, इष्ट पदार्थों के Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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