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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना ९७३ कायोत्सर्ग के द्वारा भी 'ठाणेणं, मोघेणं, झाणेणं अप्पाणं, वोसिरामि' इत्यादि पदों से काया की स्थिरता, वाणी की स्थिरता, ध्यान के द्वारा मन, प्राण और चित्त की स्थिरता-एकाग्रता एवं शान्ति, फिर आम व्युत्सर्ग द्वारा आत्मा, इन्द्रियों तन-मन की शान्ति और प्रसन्नता। इस दृष्टि से कायोत्सर्ग श्वास-संवर, प्राणविजय, मनोविजय आदि का कारण है। एक पुद्गल निविष्टदृष्टि भी श्वास-संबर से सिद्ध हो सकती है • आचारांग सूत्र में कायोत्सर्ग के समय भगवान की मुद्रा का वर्णन आता है। उनका शरीर बिलकुल सीधा और सरल था। एक पुद्गल पर वे अपनी दृष्टि जमाए रहते थे। एक पुद्गल पर दृष्टि टिकाना-श्वास पर संयम-संवर किये बिना हो नहीं सकता। आप जैसे ही किसी चीज पर दृष्टि टिकाते हैं, आपकी श्वासक्रिया अपने-आप धीमी हो जाएगी। श्वास मंद या शान्त हुए बिना एक पुद्गल पर आपकी दृष्टि टिकी नहीं रह सकेगी। शान्त मुद्रा और आवेशग्रस्त मुद्रा के परिणाम में अन्तर . हमारे समक्ष मनुष्य की मुख्यतः दो प्रकार की मुद्रा प्रकट होती है। एक है शान्त मुद्रा और दूसरी है आवेशग्रस्त मुद्रा। स्वाभाविक शान्तमुद्रा में शरीर भी समत्वयुक्त होगा; मन, इन्द्रियाँ आदि भी शान्त, स्वस्थ एवं प्रसन्न होंगे, मनोभाव भी शान्त होगा और श्वास (प्राणवायु या प्राण) भी शान्त एवं नियंत्रित होगा। ____ अशान्त मुद्रा में श्वास तीव्र एवं अनियंत्रित होगी, मनोभाव भी शिथिल होगा,एवं शरीर में तनाव आ जाएंगा। श्वाससंवर से श्वास भी शान्त होता है, तन मन भी स्वस्थ होते हैं और कषाय भी शांत होते हैं, फलतः कमों का आसव (आगमन) रुक जाता है। भगवान महावीर ने कहा-"आत्मा के द्वारा आत्मा का सम्प्रेक्षण करो। मैं समझता हूँजैसे ही आप गहराई से आत्म-संप्रेक्षण करेंगे, अपने भीतर झाकेंगे वैसे ही श्वास स्वतः शान्त और नियंत्रित हो जाएगा। - बौद्ध परम्परा में आनापानसती' की साधना निरन्तर श्वास दर्शन की प्रक्रिया है। उससे भी श्वास संवर सिद्ध होता है। वैदिक परम्परा में सोऽहम्' की साधना है, उससे भी श्वासनिग्रह एवं शान्त होता है। का इन सभी दृष्टियों से देखें तो श्वास-संवर. या, जैनपरिभाषा में श्वासोच्छ्वास-बल-प्राण-संवर का बहुत बड़ा महत्त्व है, वह संवर-साधना का महत्त्वपूर्ण अंग है। १. (क) महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण (ख) 'एकपोग्गलनिविट्ठ दिट्ठीए।" .. . . (ग) देखें-आचारांग सूत्र श्रु.१ अ. ९ उवहाणसुत्त में भगवद् चर्या सूत्र (घ) सपिक्खए अप्पगमप्पएणं। -दशवकालिक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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