SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 430
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ९४६ कर्म - विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) चुम्बकीय शक्ति का लौप : दुरुपयोग से जैसे चुम्बक को बार-बार पटका जाए, तथा ऊपर-नीचे ऊलजलूल ढंग से उसे उलटा-पलटा जाए, तो उसकी आकर्षण शक्ति समाप्त हो जाती है, वैसे ही जो मनुष्य अपनी मानसिक दुर्बलतावश अपनी सभी विशेषताओं और महान् गुणों के बावजूद भी निकृष्ट विचारों, पतित क्रियाओं तथा दुर्गुणों को अपना लेते हैं, अथवा अपनी शक्ति-सामर्थ्य और सद्गुण सौन्दर्य का दुरुपयोग करते हैं, वे अपनी चुम्बकत्व शक्ति को खो बैठते हैं और पतन के गड्ढे में गिर जाते हैं। चुम्बकीय शक्ति और प्राणबल संवर का साधक इसी चुम्बकत्व शक्ति रूप प्राणऊर्जा से सामान्य मनुष्य को राजर्षि, ब्रह्मर्षि और देवर्षि स्तर तक पहुँचने का अवसर मिलता है। इसी आत्मविद्युत रूप चुम्बकशक्ति के प्रयोग से, अथवा आश्रय से बहिरात्मा से अन्तरात्मा और अन्तरात्मा से परमात्मा तक पहुँचा जा सकता है। इसी प्राणऊर्जा- सम्पदा के अभिवर्धन के साथ उसके नियंत्रण, संरक्षण और उच्चस्तरीय प्रयोजनों में संलग्न करने का विवेकं जब प्राणबल संवर का साधक कर लेता है, तभी उसकी रत्न त्रयसाधना यात्रा सिद्धि के शिखर की ओर द्रुतगति से होती है। वह प्राणवान् गुरु- सान्निध्य में रह कर ब्रह्मचर्य से संयम से, तपश्चर्या से, समिति - गुप्ति के निष्ठापूर्वक पालन से, महाव्रतों की साधना से, शुभध्यान मौन से प्राणबल और उसके संरक्षण, नियंत्रण और प्रयोग का विवेक प्राप्त कर लेता है। विकसित स्तर का वही प्राणबल संयम में पराक्रम करने के साथ आत्मा की अनन्त चतुष्टय सम्पदा को अर्जित करने के पराक्रम में भी सहायक होता है।' आध्यात्मिक सम्पदाओं की शारीरिक विशेषताओं से एकान्ततः संगति नहीं तपस्या करने वाला शरीर से कृश होते हुए भी प्राणबल सम्पन्न होने से तेजस्वी होता है। तपस्या का उद्देश्य तेजस्विता उत्पन्न करके उसे संवर और निर्जरा के पथ में • लगाना है। इस सम्बन्ध में चेहरे की चमक के साथ इस आत्मिक शक्ति की संगति नहीं जोड़नी चाहिए। स्वास्थ्य और सौन्दर्य शारीरिक विशेषताएँ हैं, जो पूर्वकृतकर्मवश किसी को प्राप्त होती हैं, किसी को नहीं। हरिकेशबल मुनि तपस्वी और आत्मतेज से युक्त प्राणबली साधक थे, किन्तु उनके शरीर का डीलडौल, आकार एवं रूप रंग आकर्षक एवं सुन्दर नहीं था। फिर भी उत्तराध्ययनसूत्र में उनकी तपस्विता और तेजस्विता का स्पष्ट रूप से बखान किया गया' 9. अखण्ड ज्योति फरवरी १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ. ४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy