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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना ९४७ '. यों तो नवयौवन में सभी के चेहरे प्रायः चमकते हैं, प्रौढ़ता के साथ रूक्षता आती है और वृद्धावस्था में चेहरे पर तथा अन्यत्र झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं। इस अवस्थाकृत परिवर्तन को देखकर आत्मिक तेजस्विता की न्यूनाधिकता का नोप-तौल करना अनर्थकर एवं अन्यायकर सिद्ध होगा। . . आत्मतेजस् या ब्रह्मवर्चस् अथवा प्राणऊर्जा सम्पन्नता का रूप समझने के लिए व्यक्ति में धैर्य, गाम्भीर्य, दृढ़ता, श्रद्धा, साहस, उदात्त चरित्र, दृढ़ निश्चय जैसे गुणों को टटोलना चाहिए, साथ ही यह भी देखना चाहिए कि वह व्यक्ति भय और प्रलोभनों का त्याग करके, लोकमान्यता एवं आग्रहों की उपेक्षा करके किस सीमा तक सत्य का आग्रही रहा और अपने स्वीकृत संवर पथ पर अडिग रहा। ___आत्मतेजस् या प्राणबली व्यक्ति में हम महामानवों का उदात्त विनियोग, समर्थ पुरुषों का आत्मिक वैभव, सत-पुरुषार्थियों का पराक्रम, नैष्ठिकों का चरित्र देख सकते हैं। प्राणबल संवर की साधना से ही ऐसी आध्यात्मिक सम्पदा प्राप्त हो सकती है। प्राणायाम से प्राणवल का असाधारण विकास जीवन के सभी क्षेत्रों में सम्भव । .. वैदिक परम्परा के मूर्धन्य मनीषियों ने प्राणी के शरीर में प्राणमय कोश का अस्तित्व माना है। प्राणविद्या के अन्तर्गत प्राणायाम-प्रक्रिया का सहारा लेकर प्राणमय कोश की आंशिक एवं समग्र साधना की जा सकती है। .. प्राणायाम दीखने में तो सामान्य लगता है, किन्तु यदि उच्चस्तरीय विधान के अनुसार साधा जाए तो उससे शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक सभी क्षेत्रों में असाधारण विकास किया जा सकता है। साथ ही इससे प्राणतत्त्व के गुणधों, क्रियाफलापों तथा प्रभावों का आदि का वर्णन भी भारतीय ग्रन्थों में मिलता है। इस मान्यता को भौतिक विज्ञान बहुत दिनों तक झुठलाता रहा। परन्तु शरीरविज्ञान के सम्बन्ध में जैसे-जैसे उसकी जानकारियाँ बढ़ी, और बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे वह प्राण संस्थान के अस्तित्व और प्राणायाम को प्राणतत्त्व के महत्त्व के रूप में स्वीकार करता जा रहा है। प्रणतत्त्व की मन्दता एवं लोप होते ही जीवन की मन्दता एवं मृत्यु : वैज्ञानिकों की JEK यह भी माना गया कि इस प्राणतत्त्व के मन्द पड़ने के साथ-साथ उस प्राणी के शरीर की क्रिया और नाड़ी की गति में मन्दता आती है। और प्राणतत्त्व के समाप्त होते ही 1 - - (क) अखण्डज्योति, फरवरी १९७७ से भावांश ग्रहण, पृ.४४ (ख) सक्खं खु दीसइ तवोविसेसो न दीसइ जाइविसेस कोवि॥ ... . सोवागपुत्ते हरिएस साहू, जस्सेरिसा इड्ढि-महाणुभागा। -उत्तराध्ययनसूत्र अ. १२ गा. ३७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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