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________________ प्राणबल और श्वासोच्छ्वास-बलप्राण-संवर की साधना. ९४५ अभिवर्धन करके आत्मशक्तियों के विकास में लगाना है। इसी के सहारे तपश्चर्या, तितिक्षा, परीषहजय, एवं कष्टसाध्य साधना पथ पर अन्त तक डटे रहना सम्भव होता है। इस शक्तिशाली चुम्बकत्व से अतीन्द्रिय सामर्थ्य प्राप्त होता है। तपःसाधना द्वारा इसी प्राणशक्ति की वृद्धि कर लेने वाले महानुभाव दूसरों को उपयोगी और सार्थक प्रेरणा देकर लाभान्वित कर सकते हैं।' प्राणबल द्वारा सम्प्राप्त उपलब्धियाँ चर्मचक्षुओं से न देख पाने वाले स्थानों में घटित हो रही घटनाओं को स्पष्ट देख पाना, और उसका हूबहू वर्णन कर पाना, एक स्थान से दूसरे स्थान को परस्पर संवादों का आदान-प्रदान, सूक्ष्म जगत् में पक रही भावी घटनाओं की सूक्ष्म क्रियाओं के संकेतों को समझकर भविष्य कथन, आदि सभी असामान्य या असम्भव समझे जाने वाले कार्य इसी चैतन्य चुम्बकत्व (प्राणबल) के द्वारा सम्पन्न होते हैं। चुम्बकीय शक्ति सम्पन्न में चुम्बक के तीनों गुण . ___ प्राणवान् व्यक्ति में यह चुम्बकीय शक्ति अधिक मात्रा में विकसित होती है। यद्यपि यह चुम्बकीय शक्ति होती सभी में है, पर अल्पप्राणमनुष्यों की सामर्थ्य से वह प्रकट नहीं हो पाती। जिस प्रकार चुम्बक में आकर्षण शक्ति, एकरसता, और दिशा की स्थिरता होती है, उसी प्रकार चुम्बकीय शक्तियाँ जिसमें विकसित हो जाती हैं, उसमें ये तीनों विशेषताएँ दृष्टिगोचर होती हैं। चुम्बक के समान जो मनुष्य अपने मन की प्रवृत्तिरूपी चुम्बकीय कणों को यथार्थरूप से व्यवस्थित और क्रमबद्ध कर लेता है, उसकी आत्मशक्तियाँ विकसित हो जाती हैं। ऐसे महान् आत्माओं में प्रबल आकर्षण होता है। वे जहाँ भी होते हैं, लोग चारों ओर से उनकी ओर खिंचे चले आते हैं। ........ ... जिस तरह चुम्बक में एकरसता होती है। कितने ही विखण्डित रूप हो जाने पर भी उसमें आकर्षण-क्षमता बनी रहती है। उसी तरह बाह्यरूप से कभी दब जाने या छोटे हो जाने पर भी प्राणवान् महापुरुषों के व्यक्तित्व में एकरसता बनी रहती है। उनमें क्षुद्रताएँ, विसंगतियाँ या पक्षपात की प्रवृत्तियाँ नहीं आ पातीं। , - चुम्बक के समान दिशा की स्थिरता का गुण भी प्राणवान् महान आत्माओं की विशेषता होती है। वे स्वीकृत लक्ष्य की दिशा में स्थिर रहकर गृहीत पथ पर आगे बढ़ते जाते हैं। ऐसे परिष्कृत व्यक्तित्व के धनी मानव अपने जीवन मूल्यों को कभी खोते नहीं, अपने सिद्धान्तों और आदर्शों पर अडिग रहते हैं। . . १. (क) अखण्ड ज्योति 'फरवरी' १९७७ से भावांश ग्रहण पृ.३ _ (ख) सवणे नाणे विण्णाणे..अकिरिया निव्वाणसिद्धि॥ -भगवतीसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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