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________________ प्राण- संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९१७ की, गैरजिम्मेदारी, उद्दण्डता और सनक की प्रवृत्ति अधिकाधिक बढ़ती जा रही है। ऐसे मैं श्रोत्रेन्द्रियबल प्राण का संवर कितना कठिन और श्रम तथा मनोयोग-साध्य है ? इसका अनुमान लगाया जा सकता है ?" चक्षुरिन्द्रियं बल-प्राण- संवर की महत्ता और पद्धति इसी प्रकार चक्षुरिन्द्रियबल - प्राण- संवर की साधना भी चक्षुरिन्द्रियं को शक्ति और प्रेक्षण लब्धि प्राप्त कराने वाली प्राणऊर्जा का व्यर्थ व्यय, अन्तरंग प्रेक्षण-निरीक्षण के बजाय बाह्य निरीक्षण में प्राणऊर्जा को लगाने से नहीं हो सकती। पंचेन्द्रिय विषयों तथा सांसारिक भौतिक पदार्थों को देखने तथा उनके प्रति राग-द्वेष, आसक्ति घृणा, द्रोह-मोह करने से चक्षुरिन्द्रिय की प्राणऊर्जा कम होती जाएगी। 'इसी तरह हिंसा, असत्याचरण, दम्भ, दिखावा, ब्रह्मचर्य भंग, व्यभिचार, परिग्रहवृत्ति, दंगा आदि में जितनी - जितनी चक्षुरिन्द्रिय को लगाई जाएगी, उतनी उतनी उसकी प्राणशक्ति नष्ट होती जाएगी। मनुष्य की आँखें अन्तरंग के सूक्ष्म पदार्थों को देखना तो दूर रहा; बाह्य स्थूल पदार्थों को भी नहीं देख पाएँगी। अतएव चक्षुरिन्द्रिय-बल-प्राण- संवर के लिए भी साधना की आवश्यकता है। चक्षुरिन्द्रिय से संलग्न प्राणऊर्जा से अत्यावश्यक दृश्य या रूपी पदार्थ भी राग-द्वेष-रहित होकर आसक्ति तथा घृणा से दूर रहकर देखने से दृश्य शक्ति का विकास होता है, और उससे अदृश्य जगत् की सूक्ष्म हलचलों को प्रत्यक्षवत् जाना देखा जा सकता है। गुप्त रहस्य भी ज्ञात हो सकते हैं। भूतकालीन और भविष्यकालीन घटनाओं को चमुरिन्द्रियबल - प्राण संवर की साधना से जाना देखा जा सकता है। महाभारत के युद्ध में 'संजय' को पूर्वकृत कर्मक्षयोपशमवश वह दिव्य दृष्टि प्राप्ते थी, जिससे वह धृतराष्ट्र के पास बैठा-बैठा भी दूरवर्ती रणक्षेत्र में होने वाले कौरव पाण्डव युद्ध का साक्षात्कार करके बता देता था। दूरबर्ती घटनाओं का तथा दूर अन्तरिक्ष एवं आकाश में हो रही हलचलों का ज्ञान तथा भविष्य में होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास भी इसी चक्षुरिन्द्रिबल-प्राण के विकास की साधना के परिणाम हैं। २. प्रणसंवर की साधना एवं दृष्टि से युक्त एवं वियुक्त दूरदर्शन - दूरश्रवः का परिणाम यह ठीक है कि वर्तमान विज्ञान ने टेलीविजन आदि की सहायता से दूरदर्शन, सुरश्रवण आदि सर्वसाधारण के लिये सुलभ बना दिये हैं। परन्तु उसके पीछे प्राणसंवर साधना तथा प्राणसंवर की दृष्टि न होने से कर्मों के संवर की अपेक्षा कर्मों के आनयों, अखण्ड ज्योति मई १४७८ से पृष्ठ ७३ • अखण्ड ज्योति मई १९७८ से, भावश ग्रहण, पृ. ७३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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