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________________ ९१६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आस्रव और संवर (६) दिग्दर्शन कराते हुए निरूपण किया गया है-एक बार श्रमण भगवान् महावीर के पास महाशुक्रकल्प (देवलोक) से दो महर्द्धिक महानुभाग देव आए और उन्हें वन्दन-नमस्कार करके बिना कुछ बोले मन से ही दो प्रश्न पूछे, जिसका उत्तर मन से ही भगवान् ने इस प्रकार दिया, जिससे वे सन्तुष्ट एवं हर्षित हुए। . निष्कर्ष यह है कि श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण का उत्कृष्ट संवर हो जाने के पश्चात् कानों से किसी के शब्दों को बिना सुने ही, आँखों से उसे बिना देखे ही भावेन्द्रिय (मन) की सामर्थ्य इतनी बढ़ जाती है कि तीर्थकर तो उनके मन की वाचा को जान लेते ही हैं, किन्तु जिज्ञासु उच्च देवलोकवासी देव भी तीर्थंकर आदि के मन की वाचा को अथवा उनके द्वारा बिना बोले ही मन से दिये गए उत्तर को मन ही मन सुन-समझते हैं।' ऐसी संवर साधना कब और कैसे हो सकती है? तात्पर्य यह है कि कर्णेनिय बल-प्राण की ऐसी संवर साधना तभी पुष्पित-फलित हो सकती है, जब व्यक्ति सांसारिक एवं राग-द्वेष वर्द्धक, कामना और आसक्ति के उत्तेजक शब्दों को चाहकर, राग-द्वेष से युक्त होकर कदापि सुनने का उपक्रम नहीं करता। न ही किसी की निन्दा विकथा आदि सुनने में रस लेता है। सुनकर भी उसमें डूबता नहीं। ऐसी स्थिति में ही साधक की प्राण-ऊर्जा व्यर्थ नष्ट नहीं होती, वह सुरक्षित रहती है, और धीरे-धीरे भाव श्रोत्रेन्द्रिय की प्राणऊर्जा इतनी बढ़ जाती है, बिना स्थूल शब्दों के सुने ही, वह संवर साधना के दिव्य-संकेतों को समझ लेता है, शास्त्रों के एक शब्द या वाक्य को सुनकर गणधर गौतम स्वामी या श्रुतपारंगत वज्रस्वामी की तरह पदानुसारिणी लब्धि द्वारा सभी पदों को जान लेता है, और उच्चारण कर लेता है। परन्तु यह सब हो सकता है, प्राणों को आध्यात्मिकता तथा शास्त्र-श्रवर्ण-मनन आदि में एकाग्र करने से। श्रोत्रेन्द्रिय की प्राण-ऊर्जा को व्यग्र, विक्षिप्त एवं नष्ट करने वाली बातें .. आज मनुष्य के कान अत्यधिक कोलाहल, एवं तीक्ष्ण आवाजों के कारण व्यन और उद्विग्न हो जाते हैं। सामान्य मनुष्य के कान ६० डेसिबल की आवाज को सहन कर सकते हैं, जबकि रेलों, मोटर्स, लाउडस्पीकरों एवं कारखानों आदि के कारण १२० डेसिबल तक की आवाज पैदा होती है। यह शोर-शराबा मनुष्य के मानसिक एवं मस्तिकीय सन्तुलन को बिगाड़ देता है। सिनेमा, वी. डी. ओ., टी.वी., रेडियो, आदि पर दिखाये-सुनाये जाने वाले दृश्यगीत या समाचार अथवा चलचित्र भी उसकी प्राणऊर्जा को व्यग्र, विक्षिप्त एवं नष्ट कर डालने में अग्रसर हैं, जिससे आत्महत्या की, अपराधों १. भगवतीसूत्र शतक ५ उ. ४, सू. १८/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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