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________________ प्राण-संवर का स्वरूप और उसकी साधना ९१५ - नादयोग के अभ्यासी कहते हैं कि प्रारम्भ में शंख, घंटा, घड़ियाल, मृदंग, वीणा, नूपुर जैसे स्वर सुनाई देते हैं। कभी मेघों के गर्जन, झरने के बहने, आग जलने, तथा झिंगुर बोलने जैसी क्रमबद्ध ध्वनियाँ श्रवणगोचर होती हैं। बाद में नादयोग के साधक की श्रवणेन्द्रिय द्वारा ग्रहण-धारण की क्षमता बढ़ जाती है, और वह अनुभव एवं अभ्यास के आधार पर उनका विश्लेषण एवं वर्गीकरण करके जान लेता है, कि इस ध्वनि के साथ कहाँ का, किस प्रकार का, किस काल की घटना का संकेत है। नादयोग का अभ्यासी साधक प्रारम्भ में अपने शरीरस्थ अवयवों की हलचल, रक्त प्रवाह, हृदय की धड़कन एवं पाचन संस्थान की गतिविधि को उसी प्रकार जान सकता है, जिस प्रकार डॉक्टर लोग स्टेथिस्कोप आदि उपकरणों की सहायता से हृदय की गति, रक्तचाप की उच्चता-निम्नता आदि का पता लगा लेते हैं। इसके गहन अभ्यास के बाद भावश्रोत्रेन्द्रिय में प्राणऊर्जा इतनी बढ़ जाती है कि ईथर में चल रहे ध्वनिकम्पनों तथा अन्तरिक्ष में विद्यमान घटनाक्रमों को वह सुन सकता है, जान सकता है।' ___तैजस-कार्मणशरीर द्वारा उपलब्ध प्राणऊर्जा से भाव-श्रोत्रेन्द्रिय का विकास होने से संसार में कहीं भी घटित होने वाले घटनाक्रम को सुना जाना जा सकता है, क्योंकि तैजस-कार्मणशरीर का सीधा सम्बन्ध चेतना जगत् से है। श्रोत्रेन्द्रिय बल प्राण की ऊर्जाशक्ति बढ़ जाने पर व्यक्ति लोगों के मन में उत्पन्न होने वाली विचारयुक्त भाषा को निकट से और दूर से भी सुन जान सकता है। उसे जीव जन्तुओं और पशु-पक्षियों की भी मनःस्थिति का ज्ञान इसी श्रोत्रेन्द्रिय की विशिष्ट क्षमता का विकास होने पर प्राप्त हो जाता है। . . इस प्रकार बिना ही उच्चारण के एक मन से दूसरे मन का परिचय तथा विचारों का एवं प्रश्नोत्तरों का आदान-प्रदान होता रह सकता है। विचार-सम्प्रेषण विद्या के ज्ञाता श्रवणेन्द्रिय को बाह्य कर्मास्रवकारक वस्तुओं के या व्यक्तियों के शब्द सुनने का मोह या आसक्ति छोड़कर श्रवणेन्द्रियबल प्राण का संवर करके इतनी श्रवण क्षमता बढ़ा लेते हैं कि वे मौन रहकर हजारों कोस दूर बैठे या निकटवर्ती व्यक्ति या व्यक्तियों की बातें अन्तःकरण के पर्दे पर अव्यक्त रूप से सुन लेते है, अनुभव कर लेते है, और अपनी बात भी बिना बोले दूसरे तक पहुँचा देते हैं। तीर्थंकरों तथा उच्चदेवलोक के देवों में बिना बोले ही परस्पर मनोगत वाचा को समझने की क्षमता भगवती सूत्र में श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण एवं चक्षुरिन्द्रिय बल प्राण को संवृत करके, पानी उससे बिलकुल कार्य न लेने, निःस्पन्द-निष्प्राण कर लेने के परिणाम का स्पष्ट १. वही,नवम्बर १९७८ से भावांश उद्धृत पृ. ५१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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