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________________ ९१४. कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६). आयु में अन्धा हो गया था। लेकिन बिना नेत्रों के ही दूसरों से सुनकर उसने आश्चर्यनजक ज्ञान वृद्धि कर ली। जो सुना उसे पूरे मनोयोगपूर्वक सुना और ध्यान में रखा । फलतः आश्चर्यजनक रूप से उसका ज्ञानभण्डार इतना बढ़ गया कि उसके द्वारा नोट कराये गए ज्ञान कोश को जापान में २८२० खण्डों के एक विशाल ग्रन्थ के रूप में छापा गया है।' ..'लाक्रोज' की श्रवणशक्ति विलक्षण थी। उसने एक बार अपरिचित १२ भाषाओं की १२ कविताएँ सुनीं और दूसरे ही क्षण उन्हें ज्यों का त्यों दुहरा दीं। सर जान फील्डिंग अमेरीका के जज- थे। वे अन्धे थे, पर उनके कान पूर्वकृत कर्म के क्षयोपशमवश इतने सक्षम थे कि अपने जीवनकाल में जिन तीन हजार अपराधियों से उनका वास्ता पड़ा था, उन सबकी आवाज पर से वे उन्हें ठीक तरह से पहचान सकते थे. और उनका नाम भी बता सकते थे। मुकदमों के मुद्दतों बाद भी वे लोग उनसे मिलने आते तो वे उसका नाम और मुकदमों का सन्दर्भ तक बता देते थे । श्रवणेन्द्रियबलप्राण की . एकाग्रता से भी ऐसी क्षमता प्राप्त हो सकती है। कर्णपिशाचिनी विद्या- सिद्धि से दूरस्थ श्रवण क्षमता रेडियो, टेलिफोन या टेलिविजन तो निर्धारित स्थान से निर्धारित स्थान पर ही सन्देश पहुँचा सकते हैं, जिन्हें विशेष यंत्रों द्वारा ही प्रेषित किया जाता है और उन्हें भी डायरेक्ट सुन सकते हैं, विशेष यंत्र ही, परन्तु कर्णपिशाचिनी विद्या के सिद्ध कर लेने पर कहीं भी हो रहे शब्द प्रवाह को सुना जा सकता है। इस तांत्रिक साधना में मन को एकाग्र करके विधिपूर्वक कर्णेन्द्रिय को उसी में केन्द्रित करना पड़ता है तभी प्राणऊर्जा के सहारे अव्यक्त एवं दूरस्थ ध्वनियों के एवं शब्द प्रवाह के श्रवण की क्षमता बढ़ती है। नादयोय की साधना से श्रवणक्षमता में अपूर्व वृद्धि नादयोग की साधना से भी सूक्ष्म शब्द-प्रवाहों को श्रवण करने की क्षमता में अपूर्व वृद्धि की जा सकती है। परन्तु इस साधना में भी कानों के बाहरी पर्दे बंद करके बाहर के स्थूल शब्द श्रवण का निरोध करना पड़ता है, कानों के छेद बन्द करने पड़ते हैं, मानसिक एकाग्रता करनी पड़ती है, तभी श्रोत्रेन्द्रिय में तैजस-कार्मण शरीर के द्वारा प्राणऊर्जा बढ़ती है, जिससे प्रारम्भ में कई प्रकार की दिव्यध्वनियाँ सुनाई पड़ती है। अर्थात् इस साधना के प्रारम्भ में शरीर के अन्तरंग में हो रही हलचले स्पष्ट सुनाई देती हैं। 9. वही, भावांश ग्रहण मार्च १९७७ से पृ. ५४ अखण्ड ज्योति मार्च १९७७ से साभार उद्धृत पृ. ५४ २. ३. वही, मार्च १९७७ से भावांश ग्रहण पृ. ५५ · Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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