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________________ ९१८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आनव और संवर (६) उसमें भी अशुभ (पाप) कर्म के आनवों का उपार्जन ही अधिक होता है। यदि मनुष्य, चक्षुरिन्द्रिय एवं श्रोत्रेन्द्रिय से विषय-ग्रहण की उपलब्धि के साथ-साथ उसकी क्षमता में वृद्धि के मूलस्रोझै प्राणऊर्जा का अधिकाधिक निरोध, निग्रह या संवर करे तो उसकी चक्षुरिन्द्रिय एवं श्रोत्रेन्द्रिय की क्षमता इतनी बढ़ सकती है कि वह हजारों कोस दूर बैठे हुए अपने परिचित-अपरिचित व्यक्तियों को निकट बैठे हुए-सा देख-सुन सकता है। उनकी गतिविधि को जानने की दिव्यदृष्टि प्राप्त कर सकता है। गांधारी की दिव्यदृष्टि का सुपरिणाम कहते हैं, धृतराष्ट्र की पत्नी गान्धारी ने अपने नेत्रों पर पट्टी बांधे रखकर उन्हें इतना दिव्य दृष्टि सम्पन्न बना लिया था कि वह जिस किसी के शरीर पर अपनी दिव्य दृष्टि फिरा देती, उसका शरीर वज्रमय हो जाता था। गांधारी ने अपनी दिव्यदृष्टि अपने पुत्र दुर्योधन के शरीर पर फिरा कर उसका शरीर वज्रांग बना दिया था। चक्षुरिन्द्रिय बलप्राण संवर की साधना पद्धति - अतः चक्षुरिन्द्रिय बल-प्राण-संवर का साधक या तो अपनी प्राणऊर्जा को बाह्य वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रेक्षण से रोक लेता है या फिर वह यतनापूर्वक प्रेक्षण करता है। प्रेक्षासंयम उसकी साधना का मुख्य अंग बन जाता है। फलतः वह अनावश्यक प्रेक्षण को, अश्लील एवं कामोत्तेजक प्रेक्षण को बन्द कर देता है। अंत्यात आवश्यक या सार्थक. प्रेक्षण-निरीक्षण भी वह राग-द्वेष या आसक्ति-घृणा से रहित होकर करने का अभ्यास करता है। वह धर्म-शुक्ल-ध्यान के द्वारा अन्तरंग आत्मगुणों या आत्मशक्तियों का, स्व-भाव या स्व-स्वरूप का निरीक्षण-प्रेक्षण करता है। यही चक्षुरिन्द्रिय-बल-प्राण-संवर के उद्देश्य एवं साधना की पूर्वभूमिका युक्त पद्धति है। प्राणसंवर की दृष्टि से युक्त होने पर ही यथार्थ देखा-सुना जा सकता है ... भगवती सूत्र में इसी से सम्बन्धित एक प्रश्नोत्तर-युक्त संवाद है-भगवान् महावीर और गौतम स्वामी का। संक्षेप में भगवान की ओर से उत्तर यों है कि "भावितात्मा मायी (कषायवान्) मिथ्यादृष्टि अनगार राजगृही में रहा हुआ अपनी वैक्रियलब्धि, वीर्यलब्धि (प्राणशक्ति की उपलब्धि) और विभंग ज्ञानलब्धि से वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके तद्गत रूपों को जानता-देखता है, किन्तु अन्यथा भाव से जानता-देखता है, (प्राणसंवर की दृष्टि से नहीं); इसके विपरीत भावितात्मा अमायी (अकषायी), सम्यग्दृष्टि अनगार अपनी वीर्यलब्धि, वैक्रियलब्धि और अवधिज्ञानलब्धि से राजगृही में रहा हुआ वाराणसी नगरी की विकुर्वणा करके तद्गत रूपों को तथाभाव से जानता-देखता है, अन्यथा भाव से नहीं।" ___ इस शास्त्रीय पाठ से यह स्पष्ट है कि नेत्रेन्द्रिय की प्राणक्षमता में वृद्धि एवं उपलब्धि होने के बावजूद अगर भावितात्मा अनगार मायी मिथ्यादृष्टि है तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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