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________________ कर्मों का आसव : स्वरूप और भेद ५५५ धवला में इसका स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-"ईर्या का अर्थ योग है, वह जिस कार्मण शरीर का पथ (मार्ग या हेतु) है, वह ईर्यापथ है। यह ईर्यापथ का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है। इसका फलितार्थ है-योगमात्र के कारण जो कर्म बँधता है, वह ईर्यापथ कर्म है। यद्यपि ईर्यापथ आम्नव (आगमन) रूप ही है, वह उत्तरक्षण में बन्ध का कारण नहीं होना चाहिए, किन्तु सिद्धान्तानुसार बन्ध को प्राप्त हुए कर्म-परमाणु द्वितीय समय में ही कषाय के अभाव में समताभाव के कारण निर्जरा को प्राप्त होते हैं, झड़ जाते हैं। यह नाममात्र का बंध है। ___अर्थात् कर्मरूप में परिणत होने के दूसरे समय में ही वे समागत कर्म अकर्मभाव को प्राप्त हो जाते हैं। कषाय का अभाव होने से वे स्थितिबन्ध के योग्य नहीं होते। स्थितिबन्ध न होने से वह समागत कर्म सिर्फ एक समय तक विद्यमान रहता है। वहाँ एक समय का बन्ध भी केवल सातावेदनीय कर्म का होता है। ईर्यापथिक आस्रव में समागत कर्म गृहीत होने पर भी गृहीत नहीं है, क्योंकि वे सरागी के द्वारा ग्रहण किये हुए कर्म (साम्परायिक कर्म) के समान संसार को उत्पन्न करने वाली शक्ति से रहित हैं। बद्ध होकर भी वह कर्म बद्ध नहीं होता, क्योंकि दूसरे समय में ही उसकी निर्जरा हो जाती है। स्पृष्ट होकर भी वह स्पृष्ट नहीं होता। क्योंकि सत्तारूप से उसका अवस्थान उन परम आत्माओं में नहीं होता। निर्जरित होकर भी वह कर्म निर्जरित नहीं होता, क्योंकि कर्म बन्ध के सद्भाव में जैसी कर्मों की निर्जरा होती है, वैसी अनन्त कर्म स्कन्धों की निर्जरा बिना ही बंध के इसमें हो जाती हैं। यही ईर्यापथ आनव की विशेषता है।' निष्कर्ष यह है कि ईर्यापथिक आसव में कषायवृत्ति से रहित क्रिया होने से पहले क्षण में कर्म का आगमन (आसव) होता है, दूसरे ही क्षण में वह निर्जरित हो जाता है। ऐसी क्रिया आत्मा में कोई विभाव उत्पन्न नहीं करती, जबकि साम्परायिक आसव में कषाय सहित क्रिया होने से वह आत्मा के स्वभाव को आवृत करके उसमें विभाव उत्पन्न करती है। साम्परायिक कर्म आनव के ३९ आधार . साम्परायिक कर्मों का आसव (आगमन) जिन कारणों से होता है, वे कारण या आधार तत्त्वार्थसूत्र में ३९ बताए हैं। इन्हीं के आधार पर कषाययुक्त जीवों के साम्परायिक कर्म के आसव के उत्तरवर्ती क्षण में बन्ध होता है। ये ३९ ही साम्परायिक कर्मों के आसव के आधार हैं, क्योंकि वे कषाय मूलक होते हैं। इन सब में एक या दूसरे प्रकार से कषायों का तीव्र या मन्द रंग होता है। वे ३९ आधार इस प्रकार हैं-५ अव्रत, ४ १. "णिज्जरियमपि तण्ण णिज्जरियं, सकसाय कम्मणिज्जरा इव अण्णेसिमणं ताणं कम्मखंधाणं ____बंधय काऊण णिजितणा - २.४/२४/४१, ५४/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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