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५५४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
सामान्य अल्पज्ञ पुरुष की क्रिया कषाय ( राग-द्वेष, मोहादि ) वृत्ति से युक्त होती है। जबकि वीतराग पुरुष की क्रिया कषाय रहित होती है। यही कारण है कि शास्त्रकारों ने कषाययुक्त व्यक्ति की क्रिया से होने वाले कर्मागमन को 'साम्पराायिक आनव' कहा है और कषायवृत्ति से ऊपर उठे हुए व्यक्ति की क्रियाओं से जो कर्मों का आनव होता है, उन्हें 'इर्यापथिक आनव' कहा है।
तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार- कषाय सहित व कषाय रहित आत्मा का योग क्रमशः साम्परायिक और ईर्यापथिक कर्म के आनव रूप हैं।' सम्पराय संसार का पर्यायवाची शब्द है। जो कर्म संसार का प्रयोजक है, वह साम्परायिक है।
राजवार्तिक में साम्परायिक आम्लव का लक्षण स्पष्ट रूप से समझाते हुए कहा गया है-चारों ओर से कर्मों द्वारा आत्मा (स्व-रूप) का पराभव होना साम्पराय कहलाता है । उस साम्पराय का प्रयोजनभूत कर्म साम्परायिक कर्म है। आशय यह है कि मिथ्यादृष्टि ( प्रथम गुणस्थान) से लेकर सूक्ष्म सम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तक कषाय का चेप रहने से योग के द्वारा आगत या आकृष्ट कर्म बाद में गीले चमड़े पर धूल की तरह चिपक जाते हैं; अर्थात् जिनमें बाद में स्थितिबन्ध हो जाता है, उसे साम्परायिक आम्लव कहते हैं।
ईर्यापथिक आम्नव का अर्थ, लक्षण एवं कार्य
जिन कर्मों का आनव होता है, परन्तु बन्ध नहीं होता, उन्हें ईर्यापथ कर्म कहते हैं। ये कर्म आने से अगले क्षण में बिना फल दिये ही झड़ जाते हैं। अतः इनमें एक समय मात्र की स्थिति होती है, अधिक नहीं। मोह का सर्वथा क्षय या उपशम हो जाने पर ही ऐसे कर्म आया करते हैं। 90वें गुणस्थान तक, जब तक मोह का किंचित् भी सद्भाव है, तब तक ईर्यापथ कर्म सम्भव नहीं, क्योंकि कषाय के सद्भाव में ही नियमतः स्थिति बँधती है।
राजवर्तिक के अनुसार - "ईर्ष्या का अर्थ गति अर्थात् प्राप्ति है, केवल आगति (आगमन) है। उपशान्त-कषाय, क्षीण- कषाय और सयोग-केवली (इन तीनों कषायों से रहित आत्माओं) के योग ( मन-वचन-काय - व्यापार) के निमित से कर्म केवल आते हैं, किन्तु उनमें कषायों का लेप न होने से सूखी दीवार पर पड़े हुए रजकण की तरह दूसरे ही क्षण झड़ जाते हैं। चिपकते या बँधते नहीं। इसे ही जैन दर्शन की परिभाषा में ईर्यापथआनव कहते हैं।"
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२.
“सकषायाऽकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः ।"
- तत्त्वार्थसूत्र ६/५
(क) “सम्परायः - संसारः, तठप्रयोजनं कर्म साम्परायिकम् ।" - सर्वार्थसिद्धि ६/४/३२१/१ (ख) कर्मभिः समन्तादमनः पराभवोऽभिभवः सम्पराय इत्युच्यते । तत्प्रयोजनं कर्म साम्परायिकमित्युच्यते । मिथ्यादृष्ट्यादीनां सूक्ष्म- सम्परायान्तानां
कषायोदयपिच्छिल - परिणामानां योगवशादानीतंभावेनोपश्लिष्यमाणं आर्द्रचर्माश्रित रेणुवत् स्थितिमापद्यमानं साम्परायिकमित्युच्यते ।” - राजवार्तिक ६/४/७/५०८
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