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________________ कमों का आस्रव : स्वरूप और भेद ५५३ 'नयचक्र' में भी कहा है-“अपने-अपने निमित्तरूप योग को प्राप्त करके आत्म-प्रदेशों में स्थित पुद्गल कर्मभाव में परिणत हो जाते हैं, उसे द्रव्यानव कहते हैं।" इसी को 'द्रव्यसंग्रह' में दूसरी तरह से समझाया गया है-ज्ञानावरणादि कमों से परिणमन करने योग्य जो पुद्गल आते हैं, उन्हें द्रव्यानव जानना चाहिए। वास्तव में भावानव को हम भावकर्म कह सकते हैं और द्रव्यास्रव को द्रव्यकर्म।' संक्षेप में कहें तो आत्मा की रागादि विकारयुक्त मनोदशा भावानव है और तदनुरूप कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आगमन की प्रक्रिया द्रव्यासव है। कों के आगमन की प्रक्रिया का विस्तृत वर्णन हम कर्मविज्ञान के तृतीय खण्ड में 'कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप' नामक निबन्ध' में कर आए हैं। वस्तुतः द्रव्यासव का कारण भावानव है और द्रव्याम्नव उसका कार्य है। भावानव में जो आत्मा में भावात्मक परिणमन होता है, वह भी प्रायः पूर्वबद्ध कर्म के कारण होता है। कषाययुक्त जीव में पूर्वबद्ध कर्म के कारण भावानव और भावानव के कारण द्रव्यासव होता है, जिससे अगले क्षण ही कर्म का बन्ध होता है। भावानव के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग, ये पाँच भेद हैं। इनके प्रत्येक के क्रमशः पाँच, पाँच, पाँच, चार, और तीन (या पन्द्रह) भेद हैं। इसी प्रकार द्रव्यानव के भी अनेक भेद होते हैं। भावानव की दो शाखाएँ : साम्परायिक और ईर्यापथिक आम्रव भावानव की दो शाखाएँ हैं-साम्परायिक आनव और ईर्यापथिक आम्नव। जैनदर्शन और गीता दोनों यह मानते हैं कि जब तक आत्मा चौदहवें गुणस्थान (अध्यात्म के सर्वोच्च शिखर) तक नहीं पहुँच जाता, तब तक उसे तन-मन-वचन से कोई न कोई क्रिया करनी पड़ती है। क्रिया-प्रवृत्ति के फलस्वरूप कर्मों का आगमन (आसव) भी होता रहता है। किन्तु सामान्य अल्पज्ञ (छमस्थ) के द्वारा होने वाली क्रियायें और वीतराग पुरुष द्वारा होने वाली क्रिया में बहुत ही अन्तर है, रात और दिन का अन्तर है। १. (क) आनवति-आगच्छति कर्मत्व-पर्याय पुद्गलानां कारणभूतेनात्मपरिणामेन स परिणामः . ... आम्रवः (भावासवः) भ. आ. (वि.) ३८/१३४/१० (ख) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष भा. १ पृ. २९६ (ग) लक्ष्ण तं निमित्तं जोगं जं पुग्गले पदेसत्य। परिणमदि कम्मभावं तपि हु दव्वासवं इष्टुं।" - नयचक्र (वृ. वृ.) १५३ (घ) नाणावरणादीणं जोग्गं जं पुग्गलं समासवदि। दव्वासवो स णेओ अणेय-भेओ जिणक्खादो॥ -द्रव्यसंग्रह (मू.) ३१ २. कर्मों की प्रक्रिया विस्तृत रूप से जानने के लिए देखें-तृतीय खण्ड में कर्म का प्रक्रियात्मक स्वरूप' लेख पृ. ४६३ ३. द्रव्यकर्म और भावकर्म के विस्तृत वर्णन के लिए देखें-कर्म का विराट् स्वरूप में कर्म के दो . रूप : भावकर्म और द्रव्यकर्म लेख।-कर्मविज्ञान प्र. भाग पृ. ३६७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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