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________________ ५५२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) शब्द का प्रयोग किया गया है। जैनागमों में आम्नव को भवभ्रमण का कारण बताया गया है, वैसे ही बौद्धदर्शन में भव' (बार-बार जन्म मरण) को आप्नव कहा गया है। बौद्धदर्शन में अविद्या को आसव का मुख्य कारण मानकर बताया गया है, कि जैसे बीज से वृक्ष और वृक्ष से बीज की परम्परा चलती है, वैसे ही अविद्या से आस्रव और आसव से अविद्या की परम्परा सापेक्ष रूप में चलती रहती है।' जैन परम्परा में जहाँ आसव-निरोध रूप संवर को मोक्ष का कारण माना है, वहाँ बौद्ध परम्परा में आम्नवक्षय को निर्वाण प्राप्ति का प्रथम सोपान माना है। योगदर्शन में प्रयुक्त ‘आशय' शब्द तथा 'क्लेश' शब्द भी आम्नव के अर्थ को ' घोतित करते हैं। जैसे-मिथ्यात्व आदि पाँआसव के हेतु बताए हैं, चैसे योगदर्शन में अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँचों को क्लेश कहकर उन्हें कर्मों के आगमन (अनव) के कारण माने गए हैं। __जो भी हो, बौद्धदर्शन आम्नवों को पूर्णतया क्षीण करने वाले अर्हन्तों को क्षीणाम्नव; इसी प्रकार योगदर्शन क्लेश, कर्म, विपाक, आशय से पूर्णतया अस्पृष्टअछूता रहने वाले को 'ईश्वर' मानते हैं।' भावानव और द्रव्यानव : स्वरूप, प्रक्रिया और प्रकार . ___ बौद्धदर्शन में आसव को चित्तमल (चित्त का मलिन परिणाम) कहा गया है, जबकि जैनदर्शन में आत्मा की राग-द्वेषादि युक्त मलिन परिणामधारा को भाव-आसव कहा गया है। जैनकर्मविज्ञान के अनुसार जीव की राग-द्वेषादियुक्त या कषाययुक्त परिणामधारा कर्मपरमाणुओं के आकर्षण का कारण बनती है और उन कर्म पुद्गल परमाणुओं को आकृष्ट करने की क्रिया भी। ये दोनों ही आसव के रूप हैं। इनमें से पहला भावानव है और दूसरा है द्रव्यानव। 'भगवती आराधना' में भावानव का लक्षण इस प्रकार किया है-“आत्मा के जिस परिणाम से पुद्गल द्रव्य कर्म बनकर आत्मा में आता है, उस परिणाम को भावानव कहते हैं।" आशय यह है कि जीव के द्वारा प्रतिक्षण मन से, वचन से या काया से रागद्वेषादि परिणामवश जो कुछ भी प्रवृत्ति होती है, वह जीव का भावानव कहलाता है। और उसके निमित्त से किसी विशिष्ट प्रकार की जड़ पुद्गल (कर्म) वर्गणाएँ आकर्षित होकर आत्म प्रदेशों में प्रवेश करती हैं, वह (कर्मों का आगमन) द्रव्यानव कहलाता है। १. मज्झिमनिकाय १/१/९ २. संयुत्तनिकाय २१/३/९ ३. योगदर्शन पाद २, सूत्र ३, तथा पाद १ सू. २४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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