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________________ ५५६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) कषाय, ५ इन्द्रिय, और २५ क्रियाएँ।' वस्तुतः ये ही ३९ और मन-वचन-काययोग, ये मिला कर आसव के ४२ भेद नवतत्त्व आदि में उल्लिखित हैं। साम्परायिक आस्रव का प्रथम आधार :अव्रत साम्परायिक आसव का सर्वप्रथम आधार है-अव्रत। अव्रत का अर्थ है किसी भी व्रत, नियम, त्याग, प्रत्याख्यान, संकल्प, प्रतिज्ञा आदि से आबद्ध न होना। मनुष्य तभी व्रत-नियम आदि से बद्ध नहीं होता, जब मन में आकांक्षाओं, इच्छाओं, वासनाओं, कामनाओं के बादल उमड़-घुमड़ रहे हों। यद्यपि मनुष्य जिस समाज, राष्ट्र, धर्मसंघ, जाति, गण, संस्था, परिवार आदि से सम्बद्ध होता है, उसके नियम, मर्यादा, परम्परा या आचार संहिता का दवाब से, दण्डभय से, शर्म से, लिहाज से अथवा स्वार्थ से पालन करता है, या करना पड़ता है। परन्तु भय या लोभ से प्रेरित होकर पालन किये हुए नीति-धर्म या नियम की नींव कच्ची है, भय या प्रलोभन के दूर होते ही वह नियम, मर्यादा और प्रतिज्ञा को भंग कर सकता है; व्रतबद्धता ही इसका सुदृढ़ और ठोस उपाय है। ___ जब सम्यग्दर्शनपूर्वक व्रतबद्धता, नियमबद्धता या प्रतिज्ञाबद्धता जीवन में आ जाती है, तभी कर्मों के आम्रव का व्यक्ति के जीवन में निरोध हो जाता है, और वैसी स्थिति में मनुष्य के कषाय भी बहुत मन्द हो जाते हैं। तृष्णा, लालसा, काम-वासना और स्वार्थलिप्सा अत्यन्त मन्द हो जाती है। व्रतबद्धताहीन जीवन में, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषाय तथा काम, मोह, द्वेष, मत्सर, त्याग, संयम व व्रत के प्रति अरुचि, विषय-भोगों में रुचि, असंयम में प्रीति, शोक, क्लेश, चिन्ता, उद्विग्नता आदि विकार अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी दोनों रूपों में तीव्रता से दौड़ लगाते रहते हैं। अव्रतमय जीवन कषाय-क्लिष्ट जीवन है, कासव के द्वार इसमें खुले रहते हैं, और कोई भी विकार घुसपैठ कर सकता है। इसलिए अव्रत को साम्परायिक आनव का प्रथम आधार पहला भेद बताया है। अव्रत के मुख्य पाँच अंग हिंसादि ____ अव्रत के मुख्यतया पाँच अंग हैं-हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्मचर्य और परिग्रह। ये पाँचों भी तथा इनमें से प्रत्येक कर्मों के आसव का आधारभूत कारण है। मन, वचन, काया की प्रवृत्ति जहाँ भी हिंसा आदि से लिप्त हुई, वहाँ पारिपार्श्विक वातावरण में घूमते हुए अशुभ कर्मपुद्गल आकर आत्मप्रदेशों में प्रविष्ट होते हैं, और एक क्षण के १. "अव्रत कषायेन्द्रियक्रिया पंच चतुःपंच-पंचविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः"। -तत्त्वार्थसूत्र अः ६/६ २. नवपदार्थ ज्ञानसार पृ. १00 ३. "हिंसाऽनृत-स्तेयाऽब्रह्म-परिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम्॥" -तत्त्वार्थ सूत्र अ. ७/१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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