SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 382
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८९८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) प्राणशक्तिहीन लोगों के व्यक्तित्व को उभरने नहीं देतीं। ऐसे व्यक्ति बहुधा किसी कोने में बे-छिपे अपने दिन काटते हैं और अपनी सहज प्रतिभा का आसानी से मिलने वाला लाभ भी नहीं उठा पाते।' प्राणशक्तिहीन एवं प्राणशक्तिसम्पन्न का अन्तर प्राणहीन और प्राणवान् व्यक्तियों का परिचय देते हुए भर्तृहरि कहते हैं- जो निम्न प्रकृति के लोग होते हैं, वे विघ्नों के भय से कार्य को प्रारम्भ ही नहीं करते । मध्यम वृत्ति के भीरु लोग होते हैं, वे कार्य तो जोश में आकर शुरू कर देते हैं, परन्तु विघ्नों से प्रताड़ित होते ही उस कार्य को बीच में ही छोड़ बैठते हैं। परन्तु जो उत्तम (प्राणवान्) व्यक्ति होते हैं, विघ्नों से बार-बार प्रताड़ित होते रहने पर भी प्रारम्भ किये हुए कार्य को नहीं छोड़ते।"२ प्राणशक्ति-विशिष्ट व्यक्ति की पहचान वस्तुतः जिनमें जैविक ऊर्जा शक्ति या प्राणशक्ति होती है, वे वीर्य विघातक कर्मों के आनव और बंध से सावधान रहते हैं। वे व्यभिचार, हिंसा, झूठ, ठगी, चोरी आदि जैसे अनिष्ट एवं अनर्थकर कुकर्म करके अपनी प्राणशक्ति का ह्रास नहीं करते। वे आलस्य और प्रमाद जैसे रक्त को ठंडा कर देने वाले दोषों को हटाने के लिए कटिबद्ध रहते हैं। उनमें शारीरिक और मानसिक स्फूर्ति, कार्य करने की उमंग, अहिंसा आदि की साधना करने का उत्साह, तथा परीषहजय, उपसर्ग-सहन एवं कषाय विजय करने का तितिक्षापूर्ण साहस होता है। ऐसे प्राणवान् व्यक्ति संवर साधना में उदासीनता, उपेक्षावृत्ति एवं असावधानी को पास ही नहीं फटकने देते। आशंकाओं, कुकल्पनाओं तथा भयावह भ्रान्तियों को साहसपूर्वक हटाने में वे आगा-पीछा नहीं सोचते । ऐसे आत्मविश्वास के धनी व्यक्ति ही अपनी प्राणशक्ति को विकसित करने के लिए कठिनाइयों का सामना करने की खिलाड़ी जैसी उमंग रखते हैं। उनमें निहित प्राणऊर्जा उन्हें खतरे उठाने और अपनी विशेषता प्रकट करने के लिए प्रेरित करती है। उनके अंदर का शौर्य बाह्यजीवन में पुरुषार्थ पराक्रम बनकर प्रकट होता है। सफलताओं के ताले ऐसे प्राणशक्तिसम्पन्न व्यक्ति साहस की चाबी से खोलते हैं। १ २ (क) अखण्ड ज्योति मार्च १९७६ से भावांश ग्रहण पृ. १५ (ख) 'जो सहस्सं सहस्साणं संगामं दुज्जए जिए। एवं जिज्ज अप्पाणं एस से परमो जओ ।' (ग) 'पंचेंदियाणि कोहं, माणं, मायं, तहेव लोहं च । दुज्जयं चेवं अप्पाणं, सव्वं अप्पे जिए जियं ॥' प्रारभ्यते विघ्नभये न नीचैः, प्रारभ्य विघ्न - विहता विरमन्ति मध्याः । विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमाना प्रारभ्यचोत्तमजना न परित्यजन्ति ॥ Jain Education International –उत्तराध्ययन सूत्र अ. ९, गा. ३४ वही, ९/३६ -भर्तृहरिं नीति शतक ७२ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy