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________________ ... प्राण-संवर का स्वरूप और उसकी साधना ८९९ प्राणशक्ति की सर्वाधिक उपयोगिता निष्कर्ष यह है कि भौतिक जगत् में अग्नि, भाप, गैस, तेल, बिजली, अणुविस्फोट, लेसर आदि की जो उपयोगिता है, उससे कहीं अधिक उपयोगिता सजीव प्राणियों के लिए जैविक विद्युत शक्ति, ऊर्जा शक्ति या प्राणशक्ति की है, जो प्रत्येक जीवित प्राणी के शरीर में न्यूनाधिक रूप में पाई जाती है। मनुष्य में उस प्राणशक्ति का अजन भण्डार भरा पड़ा है। शरीरयंत्र की संचार प्रणाली का मूलाधार : ऊर्जाशक्ति ___ मन-बुद्धि-इन्द्रियादि-सहित इस समग्र शरीर-यंत्र की संचार प्रणाली का मूलाधार अथवा सूक्ष्मातिसूक्ष्म कारण क्या है? इसके अनुसन्धान में रत शरीर-विज्ञानी इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि शरीर की मांसपेशियों-रगों में काम करने की स्थिति तक ऊर्जा, अर्थात्-पोटेन्शिएलिटी का, तथा उसके साथ जुड़ी रहने वाली इण्टेन्सिटी (संकल्पशक्ति) का जीवन-संचार में बहुत बड़ा हाथ है। इन विधुत (तैजस) धाराओं (अथवा प्राणधाराओं) का वर्गीकरण तथा नामकरण-"सीफेलीट्राइजेमिल न्यूरैलाजिया" की चर्चा एवं व्याख्या के साथ प्रस्तुत भी किया गया है। ताप विद्युतीय-संयोजन (थर्मोलेशिक कपलिंग) के शोधकर्ता अब इसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मानव-शरीर का सारा क्रिया-कलाप इसी विद्युतीय (प्राण) शक्ति के संचार के माध्यम से गतिशील रहता है। प्राणी के जीवन का मूलाधार :प्राणशक्ति समस्त प्राणियों में न्यूनाधिक रूप में यह प्राणशक्ति (विद्युत्-शक्ति) काम करती है, यह सर्वविदित है। चिकित्साशास्त्र में शरीर की ऊष्मा, तैजस तथा प्राण के द्वारा ही प्राणी की जीवन शक्ति का पता लगाया जाता है। मानव शरीर में विद्युतशक्ति (प्राणशक्ति) है, इस तथ्य को 'इलेक्ट्रो कार्डियोग्राफी' तथा 'इलेक्ट्रो इनसिफैलोग्राफी' के द्वारा प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। . शरीर विज्ञान के अनुसार प्राणी की रक्तनलिकाओं में हेमोग्लोबिन जैसा लौहयुक्त द्रव (Liquid) भरा पड़ा है। जिस प्रकार लौह चूर्ण और चुम्बक परस्पर चिपके रहते हैं, उसी प्रकार जीव-सत्ता सभी जीव कोषों (जैन परिभाषा में आत्मप्रदेशों) से परस्पर सम्बद्ध रहती है। उनकी सम्मिश्रित चुम्बकीय (प्राण) चेतना से वे समस्त कार्यकलाप चलते हैं, जिन्हें हम जीवन संचार-व्यवस्था कहते हैं। शरीर में और सब कुछ हो, किन्तु प्राण न हो तो प्राणी मृत समझा जाता है। आँख, कान, नाक, जीभ, हाथ, पैर आदि सब इन्द्रियाँ और अवयव यथास्थान हों, किन्तु प्राण १. अखण्ड ज्योति अप्रैल १९७६ से भावांश ग्रहण पृ. १९ . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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