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________________ प्राण-संवर का स्वरूप और उसकी साधना ८९७ कहकर वास्तविक विजेता कौन है ?, इसका स्पष्ट निरूपण किया है-"जो भयंकर युद्ध में लाखों दुर्दान्त शत्रुओं को जीत लेता है, यह उसकी वास्तविक विजय नहीं है, किन्तु अपने आपको जीत लेना ही सबसे बड़ी विजय है। क्योंकि पांचों इन्द्रियाँ, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सभी विकार एकमात्र आत्मा को जीत लेने पर जीत लिये जाते हैं।" प्राणशक्ति से विहीन व्यक्ति का जीवन ___वस्तुतः वीर्यविहीन (प्राणशक्ति से क्षीण) व्यक्ति वह है, जो विषय-वासना, कामभोगों की लालसा, लम्पटता, क्रोध, मान, माया, लोभ, मद, मत्सर आदि दुर्गुणोंदुर्विकारों से प्रेरित एवं पराजित होकर अपनी प्राणशक्ति को नष्ट कर डालता है। ____ भगवान् महावीर की भाषा में वह वीर्य-विघातक कर्मों के आनव, बन्ध, उपचय, संचय और उदय को न्यौता देता है। यही कारण है कि ऐसे प्राण-शक्तिहीन लोग किसी भी सत्कार्य को, अहिंसा, संयम, तप आदि की साधना को, तथा दान, शील, तप और औदार्य भाव को करने में काल्पनिक कठिनाइयों से डरे-सहमे रहते हैं। कुछ करने के लिए कदम बढ़ाने से पूर्व ही वे अनिष्ट की आशंका से भयभीत होकर हिम्मत गंवा बैठते हैं। अपनी योग्यता, क्षमता, प्रखरता, तेजस्विता एवं ऊर्जाशक्ति-सुषुप्त प्राणशक्ति पर उन्हें विश्वास ही नहीं होता। समय पर अनुकूलता और अव्यक्त रूप से उदार सहायता की उन्हें आशा ही नहीं बंधती। आत्महीनता की ग्रन्थी से उनके तन,मन, प्राण, हृदय पूरी तरह जकड़े रहते हैं। किसी के सामने अपने विचार रखते हुए अथवा अपना प्रयोजन या अभिप्राय स्पष्ट करते हुए तथा उचित सहयोग की मांग करते हुए उन्हें बड़ा संकोच एवं भय होता है। व्यर्थ की आशंका और बहम से अपना मुँह नहीं खोल सकते हैं। उन्हें ऐसा लगता है कि कुछ कहने पर कोई झिड़क देगा, कोई मेरा उपहास कर देगा, कोई मुझे मुंहतोड़ जबाब दे देगा, इसलिए चुप रहना ही अच्छा है। - ऐसे लोग दूसरों के द्वारा अपने पर किये गये अन्याय, अत्याचार, शोषण, उद्दण्डता एवं दुर्जनता को चुपचाप सहते रहते हैं। परन्तु अनीति, अन्याय, अत्याचार एवं शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं कर सकते। ऐसे बुजदिल लोग रोते-झींकते और कसमसाते हुए सहते तो बहुत हैं, परन्तु अहिंसक प्रतीकार करने में झिझकते हैं। इस कायरता, दुर्बलता, दब्बूपन, झेंप या भीति को वे सहनशीलता, सज्जनता और शराफत का नाम देने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु है यह-भीरुता और आत्महीनता ही। कायर मनुष्य के द्वारा ऐसा कहना, आत्मवंचना करना है। अपनी शक्तियों को जानबूझ दबाना-छिपाना है। ऐसे प्राणशक्तिघातक लोग वस्तुतः आत्मघातक हैं। निराशाजनक भविष्य की डरावनी कल्पनाएँ, असफलता की आशंकाएँ तथा दुर्भाग्यग्रस्त होने की प्रान्तियाँ तथा अयोग्यता की मान्यता, ऐसी ही प्राणशक्ति-घातक भारी-भरकम चट्टानें हैं, जो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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