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________________ ८९२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रय और संवर (६) का पुट हो। वैराग्य अभ्यास को परिपक्व और पुष्ट करता है, और निष्ठापूर्वक उत्साह के साथ अभ्यास करने की रुचि जगाता है। वैराग्य भीतरी वातावरण तैयार करता है, अभ्यास बाहरी वातावरण को। वैराग्यवासित मन होने से उसका निग्रह करने की साधना का अभ्यास बोझरूप नहीं लगता। वैराग्य के बिना कोरा अभ्यास अरुचिकर, भारभूत एवं स्वतन्त्रता में विघ्नकारक प्रतीत होता है। अतः मनःसंवर की साधना में जितना अभ्यास आवश्यक है, उतना ही वैराग्य भी है। वैराग्य के कारण दृष्ट (अनुभूत या प्रत्यक्षदृश्यमान) तथा आनुश्रविक (इहलोक-परलोक के) विषयों के प्रति साधक उदासीन हो जाता है। समाधियुक्त-ज्ञान के . प्रभाव से मन इन दिव्य, अदिव्य तथा अन्य लोकों में प्राप्त होने वाले विषयों के दोषों को समझ लेता है तो उनमें आसक्त नहीं होता। विषयों के ग्रहण (आदान) में उसे राग नहीं रहता, और उनके त्याग करने में कोई घृणा, अरुचि या द्वेष मन में नहीं रहता, फिर मन शुद्ध होकर निराबाधरूप से अभ्यास में प्रवृत्त हो जाता है। वह फिर अध्यात्म भावना में एकाग्र हो जाता है। इसी वैराग्य को वशीकार (मनोवशीकरणरूप) वैराग्य कहा जाता है। वैराग्य के अभ्यास के लिए तथागत बुद्ध का पंचसूत्री उपदेश मन को वैराग्य भाव से वासित करने के लिए 'अंगुत्तरनिकायं' में दिया गया तथागत बुद्ध का यह पाँच सूत्री उपदेश मननीय है "भिक्षुओ! ये पाँच उपदेश पुरुषों और स्त्रियों द्वारा-गृहस्थों और भिक्षुओं द्वारा समान रूप से मननीय हैं-(१) किसी न किसी दिन वृद्धावस्था मुझ पर आएगी, और मैं उससे बच न सकूँगा।' (२) 'किसी न किसी दिन मुझ पर रोग का आक्रमण हो सकता है, और मैं उससे बच न सकूँगा।' (३) किसी न किसी दिन मृत्यु का मुझ पर आक्रमण हो सकता है, और मैं उससे बच न सकूँगा।' (४) जिन वस्तुओं को मैं प्रिय मानता हूँ वे परिवर्तनशील और नाशवान हैं तथा मुझसे उनका वियोग हो जाता है। मैं इसे अन्यथा नहीं कर सकता।'(५) मैं अपने ही कर्मों का प्रतिफल हूँ और मेरे कर्म भले हों या बुरे, मैं ही उनका उत्तराधिकारी बनूंगा।' "वृद्धावस्था विचार यौवनमद को दूर करने या न्यून करने के लिए, रोग का विचार स्वस्थता का मद (या मोह) दूर करने का न्यून करने के लिए, मृत्यु का विचार जीने का मोह दूर करने या कम करने के लिए है। प्रिय वस्तुओं के परिवर्तन और वियोग का विचार प्राप्ति की लालसा एवं संरक्षण की ममता दूर करने के लिए है। मैं अपने ही १. देखें-'दृष्टानुश्रविक-विषय वितृष्णस्य वशीकार संज्ञा वैराग्म्' पर पं. उदयवीर शास्त्री का भाष्य, पा. यो. द. पृ. २५-२६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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