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________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८९१ • “अचेतन (अज्ञात मन) को अपने अधिकार में लाना हमारी साधना का पहला भाग है। दूसरा है चेतन (ज्ञात मन) से परे जाना। जिस तरह अचेतन (मन) चेतन (मन) के नीचे (उसके पीछे) रहकर कार्य करता है, उसी तरह चेतन (मन) से ऊपर (उसके अतीत की भी एक अवस्था है) जिसे अतिचेतन मन की अवस्था कहते हैं। (वह पूर्ण मनःसंवर की अवस्था है।) जब मनुष्य अतिचेतन अवस्था को पहुँच जाता है, तब वह मुक्त (सिद्ध-बुद्ध) हो जाता है, ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है। तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लोहशृंखलाएँ (अज्ञान से सर्वथा) मुक्ति बन जाती हैं। अतिचेतन का यह असीम (अनन्त चतुष्टय का) राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है।" निष्कर्ष यह है कि अवचेतन मन को अपने अधीन बनाकर उसके माध्यम से चेतन मन को संवृत करना है और साथ-साथ अतिचेतन मन की ओर बढ़ना है, ताकि पूर्ण संवर सिद्ध हो जाए। ___ (२४) दीर्घकाल तक निरन्तर सत्कारपूर्वक मनःसंवर का अभ्यास आवश्यकपूर्वोक्त सभी साधनाओं का अभ्यास चंचल मन को स्थिर एवं प्रशान्त करने हेतु दीर्घकाल तक श्रद्धा-निष्ठापूर्वक करना आवश्यक है। मनःसंवर की स्थिति प्राप्त करने के लिए पूर्वोक्त साधनाओं में सदैव उत्साह बना रहे, प्रयल में कभी शिथिलता न आए इसी का नाम अभ्यास है। अगर अभ्यास दीर्घकाल तक, निरन्तर श्रद्धापूर्वक नहीं होगा तो मनोवृत्तियों के निरोध में सफलता नहीं मिलेगी। अभ्यास के साथ ये तीनों बातें होंगी, तभी मनःसंवर की साधना अबाध गति से हो सकेगी। सच यह है कि अनादिकाल से संचित कर्मराशि के उभरते हुए उदित तीव्र कर्मानव-संवर अभ्यास की जड़ नहीं जमने देते, परन्तु पूर्वोक्त तीन विधियों से दीर्घकाल तक सतत अभ्यास-मनःसंवर का पुनः पुनः परिशीलन किया जाए तो तीव्र कर्मासव संस्कार उसे अनायास दबा नहीं पाते। . (२५) अभ्यास के साथ वैराग्य भी मनःसंवर साधना में नितान्त आवश्यकमनःसंवर की साधनाओं का अभ्यास तभी सफल हो सकता है, जब उसके साथ वैराग्य १. (क) वही, भावांश उद्धृत, पृ. ११२-११७-११८ (ख) विवेकानन्द साहित्य, खण्ड ३, पृ. १२०-१२१ २. (क) पातंजल योगदर्शनम् परिष्कृत भाष्य सहित (पं. उदयवीर शास्त्री) पाद १ सू. १३-१४ पर विवेचन। ..' (ख) "अभ्यास वैराग्याभ्यां तनिरोधः, तत्र स्थितौ यलोऽभ्यासः, स तु दीर्घकाल-नैरन्तर्य-सत्कारासेवितो दृढभूमिः।"-पातंजल योगसूत्र पाद १ स.१२-१३-१४ ३. वही, (भाष्य सहित) (पं. उदयवीर शास्त्री) पाद १ सू. १४ पर विवेचन से सारांश ग्रहण पृ. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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