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________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८८७ `मनोनिग्रह का प्रभावशाली साधन : शुभध्यान का अभ्यास (२१) शुभ ध्यान का अभ्यास - आत्मा, परमात्मा, गुरु, तथा सद्धर्म के विविध अंगों का ध्यान मनोनिग्रह का प्रभावशाली साधन है। मन को ऐसे तत्त्व पर केन्द्रित करना चाहिए, जो अपने आप में शुद्ध हो, अथवा आवरणों एवं विकारों से रहित शुद्ध आत्मतत्त्व का ध्यान करे। आत्मा, परमात्मा पर ध्यान का सुझाव मनीषियों ने इसलिए दिया है कि ध्याता ध्येय वस्तु के गुणों को अपने भीतर आत्मसात् कर ले। ध्यानाभ्यास के समय मन इधर-उधर जाने लगे तो उसे परिश्रमपूर्वक वापस ध्येय' में बिठा दे । स्वामी ब्रह्मानन्द के शब्दों में- ध्यान और मनोनिग्रह ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ध्यान के अभ्यास से ध्येय वस्तु में मन एकाग्र होता है, और मन के एकाग्र होने पर ध्यान ठीक से सधता है। ध्यान का अभ्यास किये बिना मन को वश में नहीं किया जा सकता।' मनःसंवर में प्रगति के लिए सतत अभ्यास एवं निराशा त्याग आवश्यक (२२) हताशा से बचो - जो अपने मन का निग्रह करना चाहते हैं, उन्हें इन सब पूर्वोक्त साधनाओं का नियमित अभ्यास करना चाहिए। मनः संवर के साधक के समक्ष यह आदर्श वाक्य रहना चाहिए- जूझते रहो, जूझते रहो, हिम्मत मत हारो । हताशा-निराशा उत्साह और शक्ति को नष्ट करने वाली आध्यात्मिक जीवन की सबसे बड़ी शत्रु है। उसे अपने पास न फटकने दें। (२३) मन:संवर की साधना के लिए अवचेतन मन पर संयम करना आवश्यकयद्यपि मन के चेतन (व्यक्त) स्तर की बागडोर अपने हाथ में ले ली जाए, तो परोक्षरूप से अवचेतन मन के संयम में भी सहायता मिलती है; तथापि अवचेतन मन की गतिविधि पर जागृत और सावधान होकर संयम किये बिना चेतन मन का संयम अधूरा रहेगा । जिन अनुशासनों का पालन एवं जो अभ्यास चेतन मन के संयम हेतु करना पड़ता है, अवचेतन मन को ध्यान में रखते हुए करना है। अभी तक हमने जो कुछ भी विचार • किया, वह प्रत्यक्षतः चेतन मन के स्तर से सम्बन्धित है। अतः अवचेतन मन पर संयम के विषय में अवश्य विचार करना चाहिए। बहुधा हम सब यह अनुभव करते हैं कि हम बहुत अच्छे-अच्छे नियम, त्याग, प्रत्याख्यान अथवा व्रत का संकल्प करते हैं, फिर भी उनके प्रति सजग होने से पहले ही वे १. (क) वही, पृ. ८५-८६ (ख) The Eternal Companion : Spiritual Teachings of Swami Brahmananda. (ले. स्वामी प्रभवानन्द, श्री रामकृष्णमठ, मद्रास १९४५) पृ. २२९ २. मन और उसका निग्रह से भावांश ग्रहण, पृ. ८७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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