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________________ ८८८ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कमों का आनव और संवर (६) उसी प्रकार धुल जाते हैं, जिस प्रकार प्रचण्ड जल प्रवाह से रेत का पुल। हम चकित, . भ्रमित और किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह जाते हैं। हम यह भलीभाँति जानते हैं कि कर्तव्य क्या है, अकर्तव्य क्या है, धर्म क्या है, अधर्म क्या है ? हित क्या है, अहित क्या है ? इस प्रकार मनःसंवर के लिए यथार्थ और अयथार्थ को जानते हुए भी यथार्थ का पालन नहीं कर पाते, और अयथार्थ (गलत) प्रवृत्ति से विरत नहीं हो पाते। जिस प्रकार दुर्योधन सबकुछ जानता था कि धर्म क्या है, अधर्म क्या है ? फिर भी उसकी असमर्थता के ये उद्गार प्रसिद्ध हैं ____जानामि धर्म, न च मे प्रवृत्तिः, जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः। - - मैं जानता हूँ कि धर्म क्या है ? फिर भी मेरी प्रवृत्ति धर्म में नहीं है। मैं यह भी जानता हूँ कि अधर्म क्या है ? फिर भी अधर्म से मेरी निवृत्ति नहीं है। ऐसी स्थिति में प्रतीत होता है कि मनुष्य मन के चेतन भाग से संकल्प कर रहा है, किन्तु मन के दूसरे-अवचेतन भाग से उन संकल्पों को नष्ट कर रहा है। इसलिए जब तक मन संवर के साधक का संकल्प उसके अवचेतन मन तक नहीं पहुँचेगा, तब तक चेतन मन के स्तर पर किया हुआ वह संकल्प पार नहीं पड़ेगा, भंग हो जाएगा। क्योंकि अवचेतन मन से साधक अपरिचित रहता है, वह मन का एक अप्रकाशित भाग है। दूसरे शब्दों में, वह चेतन मन के स्तर पर किये गए कार्य का ही एक स्वाभाविक बढ़ाव है। अवचेतन मन घर के तलघर जैसा है। साधक को जब तक ज्ञान नहीं होता कि वहाँ कितना कूड़ाकर्कट इकट्ठा हो गया है; तब तक वह उसे साफ करने की ठान लेता है। जब मनःसंवर साधक इसे (अवचेतन मन रूपी तलघर को) साफ करने लगता है, तब भी उसे पता नहीं रहता कि कैसी-कैसी चीजें और कौन-से जीव-जन्तु कीट आदि उसे मिलने वाले हैं। वह साफ करना शुरू करते ही शीघ्र थक जाता है, और सफाई के कार्य को अधूरा ही छोड़ देता है। फिर वह अवचेतन मन रूपी तलघर पहले जैसा ही कूड़े का घर बना रहता है। वह रहने लायक कमरा शायद ही बन पाता है। परन्तु मनःसंवर के साधक को यह निश्चित समझ लेना चाहिए कि जब तक इस तलघर को साफ नहीं करेगा, तब तक वह चेतन मन के द्वारा किये गए संयम, नियम या संकल्प के प्रति असंदिग्ध नहीं हो सकेगा। मनःसंवर का अपरिपक्व साधक गम्भीरतापूर्वक मनःशुद्धिपूर्वक मनोनिग्रह में प्रवृत्त होता है, किन्तु अवचेतन (अज्ञात) मन के द्वारा उपस्थित हुई कठिनाइयों विज-बाधाओं से घिर जाता है। वह जितना-जितना ज्ञात (चेतन) मन की सफाई में लगता है, कुछ समय के लिए उतनी ही कठिनाइयाँ अधिकाधिक महसूस होती जाती हैं। १. (क) मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण पृ. १0१, १०८, १०९ (ख) महाभारत शान्तिपर्व। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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