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________________ ८८६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) मनःसंवर का साधक गलत आहार ग्रहण करके, उससे उत्पन्न होने वाले गंदे एवं गलत विचारों को दबाने में अपनी शक्ति को व्यर्थ नष्ट क्यों करेगा ? वह पहले से ही विचार-संयम रखेगा; जिसका मतलब विचार-दमन नहीं, अपितु विचारों पर प्रभुत्व प्राप्त करना है।" इसका अभ्यास इतना सुदृढ़ हो जाए कि कोई भी गलत विचार उसे पकड़ने न पाए। वह गलत विचारों के आते ही तुरन्त अलग हटकर खड़ा हो जाए, वे स्वतः शान्त हो जाएँगे । विचार-संयम की उच्चतम अवस्था तक पहुँचने के लिए स्वामी विवेकानन्द का यह उपदेश मननीय तुम क्या चिन्तन करते हो, इस विषय में विशेष ध्यान रखो। हम अभी जो कुछ भी हैं, वह सब अपने चिन्तन का फल है। शब्द तो गौण वस्तु है, चिन्तन ही बहुकाल - स्थायी है और उसकी गति भी बहुदूर -व्यापी है। हम जो कुछ भी चिन्तन करते हैं, उसमें हमारे चरित्र की छाप लग जाती है।. 11 निष्कर्ष यह है कि शुद्ध चिन्तन की विधि अवश्य जान लेनी चाहिए और तदनुसार शुद्ध चिन्तन करना चाहिए। विचारशून्य अवस्था की प्राप्ति के लिए मन को जहाँ तक बने पवित्र विचारों से भर लेना चाहिए, ताकि मन शुद्ध हो । जब मन शुद्ध हो जाएगा, तब विचार स्वयमेव रुक जाएँगे। विचारशून्य अवस्था की प्राप्ति के लिए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं-"इन (इष्टदेव, गुरु, सद्धर्म-विषयक) पवित्र विचारों का अनुसरण करो, उनके साथ चलो। जब वे अन्तर्हित हो जाएँगे, तब तुम्हें सर्वशक्तिमान परमात्मा के चरणों (परमात्म-पद ) के दर्शन होंगे। यह स्थिति ज्ञानादि की पराकाष्ठा की अवस्था है। जब विचार विलीन हो जाएँ, तब उसी (परमात्मा) का स्मरण करो और उसी में तन्मय हो जाओ।” इस सर्वोच्च सीढ़ी तक वही मनः संवर साधक पहुँच सकता है, जिसने अपने को मन से पृथक करना सीख लिया है। ऐसी स्थिति में वह स्वयं को अलग और मन को अलग वस्तु के रूप में देखता है। साथ ही विचारशून्य अवस्था की प्राप्ति की पूर्वोक्त विविध साधनाओं का अभ्यास करे; अन्यथा, गलत एवं संकीर्ण क्षुद्र विचारों से उसका मन भर जाएगा, जिसे रिक्त करना अतीव कठिन होगा, और तब वह मनःसंवर की प्राथमिक साधना से भी च्युत हो जाएगा। १. (क) मन और उसका निग्रह से भावांश ग्रहण, पृ. १०१-१०३ (ख) वितक्क सनातनसुत्त (ले. सुधाकर दीक्षित) (क) विवेकानन्द साहित्य खण्ड ४, पृ. ९३ (ख) मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण, पृ. १०४ २. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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