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________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८८५ इसी प्रकार सम्भूतिमुनि उच्च तपोलब्धि से सम्पन्न थे। संवर की उच्च साधना पर पहुँचे हुए थे, किन्तु क्रोधावेश और कामावेश से ग्रस्त होकर चक्रवर्ती पद का निदान (भोगों के साधन युक्त चक्रवर्ती पद की फलाकांक्षा रूप संकल्प) करके मनः संवर साधना. के विराधक बन गए थे। अतः अप्रमाद मनःसंवर की साधना में सर्वप्रथम अनिवार्य है ।" (२०) विचार - संयम भी मनः संवर की साधना में सर्वप्रथम आवश्यक - यों तो मनःसंवर की उच्चतम स्थिति में विचार- संयम का तात्पर्य निर्विचारता है। अर्थात्विचारों का पूर्णतया रुक जाना है । परन्तु जब तक साधक अपने आपको अहंकार या शरीर से एक (अभिन्न) मानता है, तब तक वह निर्विचारता की स्थिति पर नहीं पहुँच सकता। मनःसंवर की प्रारम्भिक अवस्था में सर्वथा विचारहीनता अर्थात् मन में किसी भी विचार का न रहना अनर्थकारी सिद्ध हो सकता है। इसलिए प्रारम्भिक अवस्था में विचार संयम का तात्पर्य है - अच्छे विचारों को प्रयत्नपूर्वक मन में जमाने की क्षमता का विकास करना, तथा असत् या गलत विचारों को मन में उठने से रोक देना, उन्हें जरा भी प्रश्रय न देना । तथागत बुद्ध ने विचार-संयम पर पर्याप्त उपदेश दिया है, उसका सारांश यह है" भिक्षुओ ! याद रखो, गलत विचारों पर विजयी बनने का एकमात्र रास्ता यह है कि हम समय-समय पर मन के विभिन्न पहलुओं का अवलोकन करते रहें, उन पर मनन-चिन्तन करें और जो अशुभ विचार हों, उन्हें जड़ से निकाल दें और शुभ विचारों का सृजन करें। मनःसंवर के प्रारम्भिक साधक को इस विषय में विशेष ध्यान रखना है कि कहीं भी, किसी भी छिद्र से, किसी भी कोने से गलत (अशुभ) विचार मन में प्रविष्ट न हो जाए। उसे यह सीख लेना चाहिए कि जब तक विर्विचारता की भूमिका पर नहीं पहुँच जाता, तब तक अच्छे विचारों को उत्पन्न करना चाहिए। इस विषय में केवल मुख से लिये जाने वाले आहार के सम्बन्ध में ही नहीं, परन्तु समस्त इन्द्रियों से ग्रहण किये जाने वाले ( विषयरूप) आहार के सम्बन्ध में भी सावधानी रखनी होगी। यदि द्रव्य-भावरूप उक्त द्विविध आहार शुद्ध है तो विचार भी शुद्ध होगा और आहार अशुद्ध है तो विचार भी अशुद्ध होगा। १. (क) मन और उसका निग्रह से भावांश ग्रहण पृ. ९३ (ख) देखें - जैन कथा कोष ( मुनि छत्रमल जी) में नन्दीषेण की कथा | (ग) उत्तराध्ययन सूत्र का १३ वाँ चित्त सम्भूतीय अध्ययन | Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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