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________________ ८८४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) (आत्मभावों में रमणता) में प्रमाद से बढ़कर और कोई अनर्थ नहीं है। प्रमाद से मोह (भ्रम) उत्पन्न होता है, उससे अहंकार और अहंकार से (कर्म) बन्धन और बन्धन से दुःख उत्पन्न होता है।" जैनदृष्टि से भी प्रमाद एक भयंकर आनव है, जो कषाय, विषयासक्ति आदि अनेक कर्मबन्धकारक अनर्थों का उत्पादक है। यदि (मनः संवर साधक का ) चित्त तनिक भी लक्ष्य से विच्युत होकर बहिर्मुखी हो जाए तो वह नीचे ही नीचे गिरता जाता है। जैसे- एक गेंद असावधानी से सीढ़ी पर गिर जाए तो वह टप्पे पर टप्पे खाती हुई नीचे गिरती जाती है। विद्वान व्यक्ति विषयों की चपेट में आ जाने के कारण तथा बुद्धि-दोष के कारण विस्मृति (आत्मविस्मृतिरूप प्रमाद) से उसी प्रकार पीड़ित होता है, जिस प्रकार एक प्रेमी अपनी प्रेमिका के चिन्तन से । जैसे - काई के हटा लेने पर भी वह फिर से जल पर छा जाती है, क्षण भर के लिए भी हटती नहीं, उसी प्रकार माया भी आत्म-पराङ्मुख (प्रमादी) बुद्धिमान साधक के मन को भी ढक लेती है । " कई साधक ज्ञानादि चतुष्टय रूप संवर की उच्चसाधना में पारंगत होते हुए भी तथा कई लब्धियों और उपलब्धियों से सम्पन्न होने पर अष्टविध प्रमाद में से किसी भी प्रमाद के वशीभूत होकर अपनी मनः संवर साधना को चौपट कर देते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर आदि आन्तरिक रिपुओं में से किसी एक भी रिपु के द्वारा पराजित हो जाने पर वे अपने मनः संवर की साधना को असम्भव कर देते हैं। जैसे- नन्दीषेणमुनि अनेक लब्धियों से तथा उच्च ज्ञानादि चतुष्टय साधना से सम्पन्न होते हुए भी प्रमादवश काम- पराजित होकर एक गणिका के चंगुल में फँस गए और अपनी मनःसंवर की साधना को तिलांजलि दे दी। १. प्रमादो ब्रह्मनिष्ठायां न कर्त्तव्यः कदाचन । . प्रमादो मृत्युरित्याह भगवान् ब्रह्मणः सुतः ॥ ३२१॥ न प्रमादेनर्थोऽन्यो ज्ञानिनः स्व-स्वरूपतः । ततो मोहस्ततोऽहंधीस्ततो बन्धस्ततो व्यथा ॥ ३२२ ॥ लक्ष्यच्युतं चेत्यदि चित्तं यद् बहिर्मुखं सन्निपतेत्तत सोतः । प्रमादतः प्रच्युत केलिकन्दुकः, सोपान पंक्तौ पतितो वथा यथा ॥ ३२५॥ विषयाभिमुखं दृष्ट्वा विद्वांसमपि विस्मृतिः । विक्षेपयति धीदोषैर्योषा जारमिव प्रियम् ॥ ३२३ ॥ यथाऽपकृष्टं शैवाल क्षणमात्रं न तिष्ठति । आवृणोति तथा माया प्राज्ञं वापि पराङ्मुखम् ॥ ३२४ ॥ -विवेकचूडामणि ३२१ से ३२५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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