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________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८७५ सम्बन्धों को अपना कर्तव्य पालन करते हुए मन को क्षमा, उदारता, अनासक्ति, नम्रता और निःस्पृहता के अभ्यास से युक्त बनाना चाहिए। किसी के प्रति मन में दुर्भावनाओं, शिकायतों, घृणा, विरोधभावना तथा गलत आवेग और आवेश का संचय न करे। अन्यथा, ऐसी दुर्भावनाओं से मन फट या टूट जाता है, फिर उसे वश में करना कठिन होता है। अमेरिकन मैगज़ीन के अक्टूबर १९४७ में एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें एक क्लिनिक में इस प्रकार के हताश और टूटे दिल वालों के उपचार की सच्ची घटना छपी थी। संक्षेप में घटना इस प्रकार है-एक चौंतीस वर्षीय महिला, जो उम्र में पचास की दीख रही थी, इस क्लिनिक में उपचार के लिए आई। वह महीनों से अनिद्रा, स्नायुदौर्बल्य और क्रॉनिक थकान की शिकार थी। बहुत से चिकित्सकों के पास गई, पर कोई लाभ न हुआ। चर्चों में जाकर प्रार्थना भी की, फिर भी सफलता न मिली। अन्त में, हताश होकर . आत्महत्या करने का विचार किया। - उससे पहले इस क्लिनिक के मनोचिकित्सकों से सलाह लेने आई। उन्होंने गहराई से जाँच करके उसके रोग का यथार्थ कारण खोज लिया। वह अपनी बहन के प्रति प्रबल क्रोध और घणा के भावों से भरी थी; क्योंकि उसने उस व्यक्ति के साथ शादी कर ली थी, जिससे वह स्वयं शादी करना चाहती थी।' - ऊपरी तौर पर वह अपनी उक्त बहन के प्रति सहृदय प्रतीत होती थी, परन्तु उसके अवचेतन मन की गहराइयों में अपनी बहन के प्रति प्रबल घृणा और रोष का भाव भरा था, जिसके कारण उसका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पूरी तरह बिगड़ गया था। एक पादरी ने इस क्लिनिक के माध्यम से उसकी मानसचिकित्सा शुरू की। उसने उससे प्रतिदिन भगवान् से इस प्रकार की प्रार्थना करने का परामर्श दिया-"प्रभो ! मुझे ऐसी शक्ति दे, जिससे मैं अपनी बहन को हृदय से क्षमा और सहृदयता प्रदान कर सकूँ।" उक्त महिला ने प्रभु की बृहत्तर शक्ति में विश्वास करके प्रार्थना की; जिससे वह अपने मन को क्षमाशील, उदार और घृणा भाव से रहित, स्नेह-सौजन्य से परिपूर्ण बनाने में सफल हुई। इसके फलस्वरूप उसकी हताशा, स्नायुदुर्बलता और अनिद्रा आदि रोग एकदम मिट गए। उसे नया जीवन प्राप्त हुआ। वह पहले से अधिक सुखी, उदार और मन को संयत करने में सफल हुई। . १. स्वामी यतीश्वरानन्द कृत Adventures in Religious Life (रामकृष्ण मठ, मद्रास, १९५९) पृ. १५९-१६० . २. वही, पृ. १५९-१६० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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