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________________ ८७४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) जैसे-एक ऐसी अवस्था हो, जब तुम्हारे मन में क्रोध बुलबुले का आकार का हो, यानी जब सर्वप्रथम क्रोधादि के बुलबुलों का उठना शुरू हो, तभी विपरीत (शुभ) विचारों को उठाना चाहिए। अपने विचारों और संवेगों पर हर समय पहरेदारी तुम्हें रखनी पड़ेगी, तभी आनवों की ओर जाते हुए मन को उसके विरोधी संवर के भावों में लगा सकोगे। मानलो, तुम प्रारम्भ में क्रोध, कामवासना आदि के उठते हुए बुलबुलों को नहीं देख पाए और जब लहरें काफी ऊपर उठ चुकी हों, तभी तुम्हारा ध्यान जाए तो ऐसी स्थिति में अपने आपको बलात् उस स्थान एवं दुर्भाव से विलग कर लेना चाहिए और एकान्त स्थान में जाकर मन का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। मन को अधिकार युक्त वाणी में कहना चाहिए- "अरे मन ! यह विपरीत विचार तेरा सर्वनाश कर डालेगा, तेरी अब तक की की हुई साधना को चौपट कर देगा। क्या तू इतना भी नहीं देख पाता ?” इस प्रकार यदि तुम मन पर ऐसे भाव को बलपूर्वक अंकित कर दोगे तो वह उचित वर्तन करने लेगा।' एक शिष्य ने स्वामी ब्रह्मानन्द से पूछा - "यदि मन में विक्षेप लाने वाला कोई विचार बार-बार उठे तो क्या करना चाहिए ?" इसका उत्तर उन्होंने यह दिया कि "अपने मन पर इस भाव को बार-बार अंकित करते रहो - "यह विचार मेरे लिए अत्यन्त हानिकारक है। यह मेरा सर्वनाश कर डालेगा।” ऐसा करने से मन विक्षेपकारक विचारों से मुक्त हो जाएगा । मन सुझावों को ग्रहण करता है। जो कुछ उसे सिखाओगे, वह सीख लेगा।"२ अगर मन विषयों की ओर प्रबल वेग से दौड़ रहा हो, हमें भी बहाए ले जा रहा हो, उस समय मन पर सामने से आक्रमण या विरोध करने पर तो वह अत्यधिक चंचल हो उठता है, ऐसी दशा में हमें स्वयं को मन से एकरूप समझना बन्द कर देना चाहिए। इस प्रकार अपने मन को विपरीत भावों से मोड़ कर शुद्ध या फिर शुभ भावों की ओर मोड़ सकेंगे। यही विचार-संयम या मनः संवर का प्रभावशाली सशक्त उपाय है। मनः संवर साधक जब तक मन को अपने से अभिन्न ( एकरूप) समझेगा, तब तक मनः संवर नहीं कर सकेगा। मनोनिग्रह के लिए मन में दुर्भावना के बदले सद्भावना का अभ्यास सहायक (११) मनोनिग्रह में दुर्भावनाओं, शिकायतों और गलत आवेगों से मन को बचाना आवश्यक – जो अपने मन को वश में करना चाहते हैं, उन्हें अपने मानवीय 9. २. ३. 'मन और उसका निग्रह' से भावांश ग्रहण, पृ. ९०-९१ The Eternal Companion: Spiritual Teachings of Swami Brahmananda, P. 166 (ले. स्वामी प्रभवानन्द, रामकृष्ण मठ, मद्रास, १९४५ ) 'मन और उसका निग्रह' से भावांश ग्रहण पृ. ९१ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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