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________________ ८७६ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) सचमुच, मन का उपयोग उच्चतर उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करते रहने से उसे संवृत करने, संयमित करने में बहुत शीघ्र सफलता मिलती है। मनःसंवर का साधक प्रतिक्षण मन की वृत्ति प्रवृत्तियों से सतर्क रहे (१२) चंचल मन की प्रतिक्षण सतर्क होकर रक्षा करने का अभ्यास करो-मन की अस्थिरता और चंचलता के अनेक कारणों में से एक कारण है - गलत विचार या ऊटपटांग विचार करना। मन को स्थिर करने के लिए मनः संवर साधक को प्रतिक्षण अपने मन की चौकसी करने का अभ्यास करना चाहिए। तथागत बुद्ध ने इस सम्बन्ध में सुन्दर उपदेश दिया है- " जैसे इषुकार ( बाण बनाने वाला) अपने बाण को सीधा करता है, वैसे ही बुद्धिमान् पुरुष को अपने नित्य विचलनशील एवं चंचल मन को सीधा करना चाहिए, जिसकी रक्षा करना कठिन है, तथा जिसका निवारण अत्यन्त कठिनाई से होता है ।” “मन बहुत ही चतुर है, यथेच्छ भागदौड़ करता है तथा जिसे देख पाना कठिन है, बुद्धिमान् पुरुष को चाहिए कि वह अपने (चित्त) मन की सुरक्षा करे। सुरक्षित मन (चित्त) सुखवर्द्धक होता है।" " मनःसंवर के साधक का लक्षण उन्होंने दिया है - जिसका चित्त बिखरा हुआ नहीं है, जिसका मन विक्षोभ से रहित है। जिसका अन्तःकरण पुण्य और पाप दोनों का चिन्तन नहीं करता, ऐसे जागरूक (मनः संवरसाधक) व्यक्ति को भय नहीं होता । २ मन को परमात्मा या शुद्ध आत्मा की ओर मोड़ने का अभ्यास, मनः संवर साधक (१३) मन को शुद्ध आत्मा या परमात्मा की ओर मोड़ने का अभ्यास करो-संसार में सभी माता-पिता बचपन से ही अपने बालकों को यही शिक्षा देते हैं-अच्छे बनो, झूठ मत बोलो, चोरी मत करो, इत्यादि । किन्तु वे प्रायः यह नहीं सिखाते कि झूठ क्यों न बोला ? चोरी क्यों न की जाए ? अथवा झूठ बोलने और चोरी करने से कैसे बचें ? अगर उन बालकों को मनःसंयम का उपाय सिखाया जाए तो वह सच्चे माने में उक्त नैतिक धार्मिक शिक्षाओं को प्राप्त करके सत्यवादी, धार्मिक और नैतिक बन सकते हैं। अगर मन अपने वश में हो जाए तो मनुष्य कदापि अनुचित एवं अशुभ कर्म करने को तैयार नहीं होता। वस्तुतः मन जब तक इन्द्रिय नामक विभिन्न स्नायु केन्द्रों में संलग्न रहता है, तब तक उससे बाह्य और आन्तरिक कर्म होते रहते हैं। कर्मों के आस्रवों के ज्वार को रोकना है तो मनः संवरसाधक विषयों का अनुभव करने वाली भिन्न-भिन्न 9. फंदनं चपलं चित्तं, दुरुवरक्खं दुन्निवारयं । उजुं करोति मेधावी उसेकारो' व ते जनं ॥ सुदुद्दसं सुनिपुणं यत्थ कामनिपातनं । चित्तं रक्खेथ मेधावी चित्तं गुत्तं सुखावहं ॥ २. अनवस्सुत - चित्तस्स अनन्वाहतचेतसो । पुञ्ञ पाप पहीनस्स नत्थि जागरतो भयं ॥ - धम्मपद ३३, ३६, ३९ Jain Education International For Personal & Private Use Only · www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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