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________________ ८६४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आम्रव और संवर (६) मन की शुद्धि के लिए आहारशुद्धि आवश्यक मन की शुद्धि के लिए आहारशुद्धि आवश्यक है, क्योंकि आहार का मन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। छान्दोग्य-उपनिषद् में कहा है-“आहार की शुद्धि होने पर अन्तःकरण (सत्त्व) की शुद्धि होती है और अन्तःकरण की शुद्धि होने पर स्मृति निश्चल (ध्रुव) होती है। तथा (ऐसी निश्चल) स्मृति के प्राप्त होने पर (जैन परिभाषा में आत्मस्मृति सतत रहने पर तथा परभावों की स्मृति न आने पर) समस्त ग्रन्थियों से छुटकारा (विप्रमोक्ष) हो जाता है।' .. आहारशुद्धि का शंकराचार्यकृत तात्पर्यार्थ _शंकराचार्य के भाष्य के अनुसार यहाँ आहारशब्द का तात्पर्यार्थ बताया गया हैइन्द्रियों द्वारा ग्रहण किया जाने वाला आहार-शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श। अर्थात्इन्द्रियों के द्वारा जो भी शब्दादि आहार ग्रहण किया जाए, राग, द्वेष, मोह आदि की छाप उस पर न लगी हो, विषय जिस रूप में है, उसी रूप में आवश्यकता होने पर ग्रहण किया जाए, किन्तु उस पर मनोज्ञ-अमनोज्ञ, प्रीतिकर-अप्रीतिकर, अच्छे-बुरे का भाव प्रस्तुत न किया जाए। तथा अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकाररूप) की शुद्धि का अर्थ हैराग, द्वेष, मोह आदि विकारों से मुक्त शुद्ध अन्तःकरण का होना। इन्द्रियों द्वारा राग-द्वेषादि से युक्त विषयरूप आहार ग्रहण न किया जाए, जो अन्तःकरण को क्षुब्ध बनाकर उसे दुर्निग्रह बना डालता है। भगवद्गीतानुसार त्रिविध गुणयुक्त आहार एवं उसकी व्याख्या भगवद्गीता के अनुसार आहार का अर्थ है-खाद्य पेय यस्तु। जैनदृष्टि से भी आहार चतुर्विध है-अशन, पान, खादिम और स्वादिम। गीता में कहा गया है-राजस और तामस आहार आसक्ति (राग), द्वेष और मोह पैदा करता है, सात्त्विक आहार आसक्ति, द्वेष और मोह को कम करने में सहायक होता है। साधारणतया मुखद्वार से जो कुछ खाया या पीया जाता है, उसे आहार कहते हैं। मदिरा तथा नशीली चीजों एवं नशा लाने वाली दवाइयों का मन पर प्रभाव प्रत्यक्ष है। इसी प्रकार तामसिक, बासी, सड़ा, या अत्यधिक आहार करने का प्रभाव भी सर्वविदित है। इसी प्रकार आँखों से देखे जाने वाले दृश्य का, कानों से सुने जाने वाले श्रव्य, नाक से सूंघे जाने वाले पदार्थ का, जीभ से चखे १. (क) आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः। स्मृति समावाप्तौ सर्व-ग्रन्थीनां विप्रमोक्षः। -छान्दोग्य उपनिषद् ७/२६/२ २. (क) मन और उसका निग्रह से भावांश ग्रहण पृ. ४५-४६ . . (ख) छान्दोग्योपनिषद् शांकर भाष्य ७/२६/२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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