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________________ . .. मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८६३ चिन्तन-मनन और बौद्धिक व्यायाम से बिखरते मन को एकाग्र और वश में करना शक्य नहीं होगा। (७) निरर्थक खोजों में शक्ति खर्च करने से, शरीर को निरर्थक यंत्रणा देने से, तथा आवेश या क्रोध में आकर उपवास, मौन या अन्य कोई गलत कार्य करने की योजना बनाने से भी मन वश में होना कठिन है। (८) अपने बलबूते और सामर्थ्य को न देखकर महत्वाकांक्षा करने से, दूसरों की सम्पत्ति, तरक्की या शक्ति देखकर मन ही मन ईर्ष्या करने से अथवा सम्प्रदायान्धता, धर्मान्धता, राष्ट्रान्धता, जातीय अन्धता के प्रवाह में बहने से मन को वश में करना सम्भव नहीं होगा। (९) मन में अपराध वृत्ति, अनैतिक कार्य या अनाचार की भावना, या कामवासना को पनपाने से, इन्हें हवा देते रहने से मनोनिग्रह सम्भव नहीं होगा। (१०) पूर्वकृत पापों के लिए पश्चात्ताप पूर्वक आलोचना करके प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाने के बाद उन्हें मन में बार-बार स्मरण करके कुरेदते रहने से भी मनोनिरोध नहीं हो सकेगा। मनःसंवर मन की पवित्रता और शुद्धि पर निर्भर ___ मन का संयम या मनासंवर उसकी पवित्रता, शुद्धि और निर्मलता पर निर्भर है। मन जितना ही निर्मल होगा, उतना ही उसे वश में करना आसान होगा। मन की निर्मलता के लिए नैतिकता, धर्म (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र आदि धर्मो) का पालन आवश्यक है। मन की अशुद्धियों के कारणों को दूर किये बिना मन शुद्ध नहीं हो सकेगा। मनःशुद्धि की ओर ध्यान दिये बिना अथवा मन की अशुद्धियों को दूर किये बिना यदि कोई मनःसंवर के लिए प्रयत्नशील होगा, अथवा निश्चेष्ट होकर चुपचाप ध्यान में बैठ जाएगा, तो उसे मनःसंवर में सफलता नहीं मिल पाएगी। यही कारण है कि जैनपरम्परा में सामायिक आदि की साधना में मन के अविवेक, यशकीर्तिलिप्सा, स्वार्थ और लाभलिप्सा, गर्व, भय, निदान आदि १० दोषों से बचने का संकत किया है। ये सब मनःसंवर की साधना में मन की अशुद्धियाँ हैं। इसके अतिरिक्त मन की वासनाएँ, लालसाएँ, वृत्तियों, मोह, ईर्ष्या, घृणा, द्वेष, क्रोध, मद, मान, लोभ, छल-कपट (माया), असन्तोष, काम, दम्भ, शंकाकुलता आदि के रूप में भी ये अशुद्धियाँ प्रकट होती हैं। ये अशुद्धियाँ ही रागद्वेष को उत्पन्न करके मन में विक्षोभ पैदा करती हैं, जो मानसिक शान्ति को भंग कर देता है। ऐसी स्थिति में मन से आनव तो तीव्रगति से हो सकता है, परन्तु मनःसंवर नहीं। १. मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) से भावांश ग्रहण, पृ. ३५-३६ । २. (क) सामायिक साधना में मन के १० दोष के लिए देखें आवश्यक सूत्र, सामायिक सूत्र (उपा. __अमरमुनि) आदि में विवेचन। (ख) मन और उसका निग्रह से भावांश ग्रहण पृ. ४३-४४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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