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________________ मनःसंवर की साधना के विविध पहलू ८६५ जाने वाले भोज्य-पेय पदार्थों का तथा त्वचा से स्पर्श किये जाने वाले पदार्थ - (विषय) का मन पर अचूक प्रभाव पड़ता है ।" इसलिए मनःसंवर के लिए द्विविध आहारशुद्धि पर ध्यान देना आवश्यक है। मनोनिग्रह के लिए मन के स्वभाव को बदलना आवश्यक मनोनियंत्रण के लिए व्यक्ति को अपने मन की बनावट (रचना) को बदलना होगा । अर्थात् - उसे अपने शारीरिक, मानसिक प्रकृति (स्वभाव) में परिवर्तन लाना होगा। मनुष्य का स्वभाव संकल्प, आदतों (Habits) और रुचियों से बनता है। वेदान्त के अनुसार मन सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों की विभिन्न मात्राओं के मेल से बनता है। इनमें से जिस गुण का आधिक्य या प्राबल्य होगा, उस गुण का शेष दो गुणों पर पड़ेगा, तथा उस मनुष्य के स्वभाव में उस गुण की प्रधानता होगी। रजोगुण में विक्षेप शक्ति होती है, जो क्रियात्मक है। राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, दम्भ, द्वेष, अहंकार आदि सब मन के विकार रजोगुण के धर्म हैं, ये रजोगुण से उत्पन्न होते हैं। तथा तमोगुण में आवरणशक्ति होती है, जिसके कारण व्यक्ति को वस्तुएँ अपने वास्तविक स्वरूप से अन्यथा दिखाई देती हैं। सत्त्वगुण की वृद्धि से ये दोनों गुण दब जाते हैं। शुद्ध सत्त्व गुण के धर्म हैं- मनः प्रसाद, स्वात्मानुभूति, परमशान्ति, तृप्ति, आनन्द और • परमात्मनिष्ठा । परन्तु प्रायः सत्त्व गुण मिश्रित अवस्था में मिलता है। उसके साथ रज, तम का संयोग होने पर वह संसार का कारण बनता है। इसलिए सत्त्वगुण की वृद्धि के लिए मनोनिग्रह के अभ्यासी को प्रयत्न करना चाहिए । भागवत में तीन गुणों की वृद्धि में कारणभूत १० बातों की समीक्षा और संक्षिप्त व्याख्या श्रीमद्भागवत में बताया गया है, दस बातें तीनों गुणों की वृद्धि की कारण हैंशास्त्र, जल, प्रजाजन, देश, समय, कर्म, जन्म, ध्यान, मंत्र और संस्कार । आशय यह है कि इन दस बातों में से प्रत्येक के सात्त्विक, राजसिक और तामसिक पहलू होते हैं। सात्त्विक पहलू पवित्रता, ज्ञानालोक और आनन्द की अभिवृद्धि करता है । राजसिक पहलू दुःखदायी प्रतिक्रिया को जन्म देने वाला तथा क्षणिक सुखदायी है। तामसिक पहलू अज्ञान, मूढ़ता तथा अधिकाधिक बन्धनकर्ता है। शास्त्रज्ञ महात्मा जिन की प्रशंसा करते १. मन और उसका निग्रह (स्वामी बुधानन्द) पृ. ४७ २. (क) मन और उसका निग्रह से भावांश ग्रहण, पृ. ४८/४९ (ख) विवेक चूड़ामणि (शंकराचार्य अनु. स्वामी माधवानन्द) (अद्वैत आश्रम कलकत्ता) श्लोक १११ से ११५ तक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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