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________________ मनःसंवर के विविध रूप, स्वरूप और परमार्थ ८४१ तरह जो अमनोज्ञ भावों के प्रति तीव्र द्वेष करता है, वह दुर्दम्य द्वेष के कारण दुःखी होता है। इसमें भाव का कोई अपराध नहीं है। (अपराध वस्तुतः वृत्तियों का है।) ' वृत्तियों के माध्यम से ही उलझनें तथा प्रवृत्तियाँ मन में संक्रान्त होती हैं निष्कर्ष यह है कि जितनी भी समस्याएँ, उलझनें, या आस्रव-बन्धकारिणी प्रवृत्तियाँ आती हैं, वे सब पूर्वोक्त वृत्तियों के माध्यम से मन में संक्रान्त होती हैं। मन इतना भोला है कि वह हर भाव (बात) को पकड़ लेता है, जैसा कि उत्तराध्ययन की पूर्वोक्त गाथाओं में कहा गया है। मन वृत्तियों से प्रभावित होता है। पहले प्राण उसे उत्पन्न करता है, यानी मन को जगाता है, फिर वृत्तियाँ उसे दोषपूर्ण बना देती हैं। इसलिए मूल में यह उछल-कूद या चंचलता मन की नहीं, वृत्तियों की है। वृत्तियों से रिक्त मन ही शून्य या अनुत्पन्न मन है मन को शून्य बनाने या उसे उत्पन्न न होने देने के लिए उस ( मन ) को राग-द्वेष-मोहादि-युक्त या कषाय युक्त वृत्तियों से खाली (रिक्त) करना है। मन को खाली रखने से ही मानसिक शांन्ति तथा मनःस्थिरता होगी, मन का शून्यीकरण होगा। मन को जितना इन राग-द्वेषादि या कषायादि भावों से भरा जाएगा, उतनी ही अशान्ति एवं अस्थिरता बढ़ेगी। और मन जब इन काषायिक वृत्तियों से रिक्त होगा, विषयों से शून्य होगा, तभी ‘आराधनासार' के अनुसार आत्मा में शुद्ध चेतना का प्रकाश अवतरित हो सकेगा। शुद्ध-चेतना का अवतरण भी खाली मन में होता है। यही मन की शान्ति है, बाह्य निष्क्रियता है किन्तु अन्तरंग सक्रियता है। आन्तरिक जागृति और बाह्य सुषुप्ति है । गीता में भी इसी आशय से कहा गया है- स्वाधीनमना योगी आत्मा को सतत् परमात्मस्वरूप में संयोजित रख कर मेरे (परमात्मतत्त्व) में स्थित हो जाता है और निर्वाण वाली परमशान्ति प्राप्त कर लेता है। अतः वृत्तियों का स्रोत जब तक खुला रहेगा, तब तक मन के संकल्प-विकल्पों का प्रवाह चलता रहेगा । वृत्तियों का स्रोत बंद करने पर ही संकल्प-विकल्पों का प्रवाह बन्द होता है। संकल्प-विकल्पों का प्रवाह समाप्त होने पर मन भी समाप्त और शान्त हो जाता है। १. देखें, उत्तराध्ययन अं. ३२ गा. ८८,८९,९० २. महावीर की साधना का रहस्य से भावांश ग्रहण पृ. १२४ ३. (क) वही, से भावांश ग्रहण पृ. ११८ (ख) सुण्णीकयम्मि चित्ते णूणं अप्पा पयास | " ४. युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः । शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only - आराधनासार ७४ - गीता ६/१५ www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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