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________________ ८४२ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) मनोनिग्रह या मनोनिरोध का वास्तविक अर्थ मनोनिरोध या मनोनिग्रह का वास्तविक अर्थ भी मनोवृत्तियों का दमन करना, मन की इच्छाओं को दबाना, वासनाओं का उपशमन करना नहीं है। दमन का मार्ग मानसिक समत्व या सन्तुलन का हेतु नहीं है, बल्कि वृत्तियों, इच्छाओं के दमन करने में जितनी तीव्रता होती है, उतनी ही तीव्रता से वे दमित इच्छाएँ या वृत्तियाँ विकृतरूप में प्रगट होकर अपनी पूर्ति का प्रयत्न करती हैं। साथ ही मनुष्य के व्यक्तित्व को भी विकृत बना देती हैं। आधुनिक मनोविज्ञानवेत्ता, फ्राइड, जुंग, एडलर आदि ने दमन और तीव्र प्रतिरोध को मनोविकृतियों तथा मानसिक अस्वस्थता का कारण माना है। जैन परम्परा में मनोनिरोध के लिए उपशम के बदले क्षय का मार्ग श्रेयस्कर.. जैन परम्परा में मनोनिरोध या मनो-निग्रह के लिए दमन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया, वहाँ आत्मदमन और परदमन की तुलना में आत्मदमन को श्रेष्ठ बताया है। आत्मदमन का अर्थ स्वेच्छा से स्वयं को बुराइयों से बचाना, आत्मसंगोपन, मनःसंगोपन या मनोगुप्ति या इन्द्रिय प्रतिसंलीनता आदि हैं। परन्तु जहाँ मन की साधना का प्रश्न है, वहाँ औपशमिक मार्ग की अपेक्षा क्षायिक मार्ग को ही श्रेष्ठ मार्ग माना है। मन की वृत्तियों, इच्छाओं या वासनाओं को सहसा जबरन दबाकर साधना के क्षेत्र में आगे बढ़ने का मार्ग औपशमिक मार्ग है, दमन का मार्ग है। जैसे-आग को राख से दबा दिया या ढक दिया जाता है वैसे ही उपशम का मार्ग, क्रोधादि कषायवृत्तियों को क्रमशः क्षय करने के बजाए उनसे होने वाले वासना संस्कारों या कर्म संस्कारों को दबाकर आगे बढ़ना है। परन्तु आगे चलकर किसी भी निमित्त की हवा लगते ही दबे हुए संस्कार एकदम उभर सकते हैं। गुणस्थान-क्रमारोह में बताया गया है-उपशम श्रेणी पर चढ़कर ग्यारहवें गुणस्थान में पहुँचा हुआ साधक लक्ष्य के अतिनिकट पहुँच कर पुनः दूसरे एवं पहले गुणस्थान में आ गिरता है। यह तथ्य अध्यात्म साधना के क्षेत्र में दमन के पथ की अनुचितता स्पष्टतः अभिव्यक्त कर देता है।' भगवद्गीतासम्मत मनोनिग्रह भी मनोदमन नहीं किन्तु अभ्यास द्वारा मनोविजय भगवद्गीता में भी मनोनिग्रह का अर्थ सहसा मनोदमन नहीं, किन्तु अभ्यास और वैराग्य के द्वारा शनैः शनैः मन पर काबू पाना या मन को वश में करना है। अगर मनोवृत्तियों को दबाने का मार्ग ही गीताकार के लिए उचित होता तो क्रमिक अभ्यास और वैराग्य का मार्ग न बताकर सीधा ही दमन का मार्ग बताया जाता। अभ्यास तो वत्तियों के उदात्तीकरण, परिष्कार और अन्त में क्षय करने के लिए है। वैराग्य भी मनोज्ञ-अमनोज्ञ दृष्ट या आनुश्रविक विषयों के प्रति अनासक्ति भाव है। १. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग १ (डॉ. सागरमल जैन) से भावांश ग्रहण पृ. ४८९ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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