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________________ ८४० कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६) मन को उत्पन्न तथा उत्तेजित व संचालित करने वाले दो तत्त्व कितने ही विज्ञों का मन्तव्य है कि मन उत्पन्न होता है-प्राण के द्वारा । प्राण मन को संचालित कर देता है, जागृत कर देता है, या उत्पन्न कर देता है। उसके पश्चात् कषाय, रागद्वेष-मोह आदि से युक्त वृत्तियाँ उस पर हावी हो जाती हैं। मन अपने आप में कुछ नहीं करता, प्राण उसे जागृत या उत्पन्न कर देता है और वृत्तियाँ उस पर हावी हो जाती हैं। उनके संकेत पर मन को चलना पड़ता है। वृत्तियां ही मन को उत्तेजित करती हैं। मन कभी क्रोधावेश में, कभी अहंकारावेश में, कभी लोभावेश में, कभी ईर्ष्या, द्वेष, आसक्ति या घृणा के आवेग में बह जाता है। वृत्तियों के आवेग में बहकर मन क्षणभर में नरक के जाल बुनने लगता है, और क्षणभर में स्वर्ग के ताने-बाने गूंथने लगता है। आवेग जितने भी हैं, वे मन के नहीं, इन वृत्तियों के हैं। जैनागमों में दस प्रकार की संज्ञा का वर्णन मिलता है। क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, आहारसंज्ञा, ओघसंज्ञा और लोकसंज्ञा, ये दस संज्ञाएँ मौलिक मनोवृत्तियाँ हैं जो समस्त संसारी जीवों में पाई जाती हैं। ये ही मन पर हावी होकर मन को अपने इशारे पर नचाती हैं। वृत्तियों के आवेग मन पर इस कदर छा जाते हैं कि स्थूल दृष्टि वाले लोग यही समझते हैं कि यह सारी खुराफात या दुष्टता मन की है। परन्तु मनोनिरोध के अभ्यासी को समझ लेना चाहिए कि ये सब वृत्तियों की दुष्टता या खुराफात है। मन की नहीं, मन पर तो चंचलता या दुष्टता आदि आरोपित की गई हैं।" मन का निरोध : मनोवृत्तियों का निरोध है यही कारण है कि योगदर्शन में योग का लक्षण मन का निरोध न बताकर 'चित्तवृत्तियों का निरोध' बताया है। गीता, योगशास्त्र या योगवाशिष्ठ में तथा उत्तराध्ययन में मन को जो चंचल बताया है, दुष्ट अश्व की उपमा दी गई है, वह स्थूल दृष्टि वाले लोगों को आसानी से समझाने के लिए ऐसा कहा गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में आगे कहा गया है- “मन भाव का ग्राहक है, और भाव मन का ग्राह्य (विषय) है। जो राग का हेतु है, उसे समनोज्ञ (भाव) कहते हैं, और जो द्वेष का हेतु है, उसे अमनोज्ञ (भाव) कहते हैं। जो मनोज्ञ भावों में तीव्र आसक्ति करता है, वह afrat के प्रति कामासक्त हाथी की तरह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है, इसी १. (क) देखें - स्थानांग स्थान 90 में 90 प्रकार की संज्ञा का वर्णन, सू. १०५ (ख) प्रज्ञापनासूत्र ८वां संज्ञापद (ग) महावीर की साधना का रहस्य पृ. १२०-१२१ २. ‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः। Jain Education International - पातंजल योगदर्शन १/१ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004244
Book TitleKarm Vignan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1991
Total Pages538
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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